मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Tuesday, March 25, 2008

आम जनता एवं सरकार

लोकतांत्रिक गणराज्य भारत में क्या स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष के पूरे होने के बाद भी लोकतंत्र की जड़ें वास्तविक रूप में मजबूत हुई है? कागजों में तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है, लेकिन धरातल पर इसे अभी भी संदेह की नजर से देखा जा सकता है। लोकतंत्र यानि जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर की शासन व्यवस्था। हलांकि संविधान में जनता में भेदभाव की व्यवस्था नहीं है, लेकिन आजादी के बाद से आम जनता के बीच जो भेदभाव किया गया, आज भी जारी है। सरकार की योजनाएँ, परियोजनाएँ, कार्यक्रम एवं घोषणाएँ आम जनता के लिए होती है। लेकिन जब आम जनता का अर्थ भी अनेक हो तो देश का सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है? आज विश्व के सबसे अमीर 10 व्यक्तियों में से चार भारतीय है, लेकिन भूख और कर्ज के बोझ में दबे किसान ओैर मजदूर जितना हमारे यहाँ मरते हैं या आत्महत्या करते है, उतना तो अन्य विकसित देशों में महामारी से भी नहीं मरते हैं। ये सब हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता को दी जाने वाली सुविधों का परिणाम है। दिन-प्रतिदिन शहरों पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। रोज नई-नई स्लम बस्तियों का निर्माण हो रहा है। रेलगाडि़यों में भेड़-बकरियों की तरह लोग सफर कर रहे हैं। भारतीय रेल आम यात्रियों के लिए कम मजदूरों के लिए ज्यादा काम कर रही है। गाँव खाली हो रहा है। किसान मजदूर बनकर घर, राज्य छोड़कर बड़े शहरों की ओर भाग रहे हैं। रेल मंत्रालय नई गाडि़यों की घोषणा कर वोट बैंक पर सेंध लगाना चाहती है, तो वित्त मंत्रालय शेयर बाजार, आयकर, सेवाकर, एवं मंहगाई में उलझे रहते हैं। कृषि मंत्रालय तो खिलाडि़यों की सेवा में ही जुटे रहते हैं। आम जनता फिर भी खुश है या खुश रहने की कोशिश करती है। एक सर्वेक्षण में तो यहाँ तक बताया गया कि भारतीय सबसे ज्यादा खुश रहते हैं। कारण भारतीय सब कुछ सहकर भी हँसना चाहते हैं । दुख को अपनी नियति मानकर जीते हैं।


क्या भारत गणराज्य में आम जनता को समान अधिकार प्राप्त है? क्या सरकार के नजर में सभी जनता एक समान है? मेरे विचार से तो नहीं है। मेरे ख्याल से आम जनता को सरकार चार श्रेणियों में बाँटकर कार्यक्रम बनाती है। पहले आम जनता की चारों श्रेणियों पर विचार करें:-

1. आम जनता श्रेणी-1 यानि अतिविशिष्ट श्रेणी

2. आम जनता श्रेणी-2 यानि विशिष्ट श्रेणी

3. आम जनता श्रेणी-3 यानि सामान्य श्रेणी

4. आम जनता श्रेणी-4 यानि उपेक्षित श्रेणी


इन चारों श्रेणी को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैंः- मान लिजिए सरकार किसी मंदिर के भगवान हैं और आम जनता भक्तगण, तो श्रेणी 1 के भक्तों को कुछ माँगने के लिए मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि भगवान खुद चलकर इन भक्तों के पास आते हैं और बिना मांगे इनको खुश रखने के लिए सब कुछ देकर चले जाते हैं, क्योंकि मंदिर का निर्माण कार्य इनके दिये गये दान से होता है। श्रेणी 2 के भक्तगण जब चाहें मंदिर जाकर भगवान से मनोवांछित फल/वरदान पा सकते हैं। क्योंकि मंदिर के रखरखाव का जिम्मा इनके हाथ होता है। श्रेणी 3 के भक्तगण पर मंदिर के सारे नियम-कानून लागू होता है। देव दर्शन के लिए महीनों कतार में खड़ा रहना पड़ता है, लेकिन वरदान या फल के रूप में मिलता है-अगली बार मिलने के वायदे, क्योंकि ये लोग मंदिर निर्माण कार्य में मजदूर की भूमिका निभाते हैं। श्रेणी-4 के भक्तगण अछूत हैं इनके लिए मंदिर के दरवाजे सदा के लिए बंद होता है। भगवान को इनसे कोई लेना देना नहीं होता है।



भारतीय राजनीति में जबसे गठबंधन की परंपरा की शुरूआत हुई है तब से आम जनता श्रेणी 1 के पाँचों अँगुलियाँ घी में है। ये लोग भिन्न-भिन्न विचार धारा वाले पार्टियों को एक साथ जोड़ने में फेवीकोल का काम करते हैं। बदले में गठबंधन सरकार अपने चलने तक उनको खुश रखने की कोशिश करती है, क्योंकि गठबंधन सरकार कब तक चलेगी, इसकी भविष्यवाणी तो कोई नहीं कर सकता। इस गठबंधन के युग में धर्म, वर्ग, जाति, भाषा, क्षेत्र आधारित राजनीतिक पार्टियाँ खड़ी हो गई है एवं हो रही है जो देश की एकता एवं अखंडता के लिए खतरनाक हो सकता है। आम जनता श्रेणी 4 यानि उपेक्षित श्रेणी न तो सरकार को अब तक जानती है न ही सरकार इनको जानना चाहती है? देश में आज भी हजारों गाँव ऐसे हैं जहाँ पानी, सड़क, बिजली, पाठशाला, चिकित्सालय नहीं हैं। उन लोगों के बारे में सरकार की कोई योजना नहीं होती है, क्योंकि उन लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई आधार नहीं है। ये लोग देश में बिल्कुल उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। ये न तो प्रधानमंत्री को जानते हैं न मुख्यमंत्री को। सरकार को भी इनकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि वोट की राजनीति में ये श्रेणी गरीब है। इनकी वोट की कोई ताकत नहीं है। नक्सलवाद इसी का परिणाम है।


शासन के तीनों अंग- व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायापालिका में आम जनता में किस प्रकार भेदभाव होता है, जरा देखियें:-




व्यवस्थापिकाः- सेज (SEZ) बनाने के लिए जो अधिनियम बनाया गया उसमें आम जनता श्रेणी-1 को लाभ पहुँचाने के लिए आम जनता श्रेणी-3 एवं 4 के सारे अधिकार छीन लिये गये। किसान जिनकी खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण की जायेगी एवं खेतीहर मजदूर जो उस भूमि पर मजदूरी करके गुजारा करते थे के बारे में कुछ भी नहीं सोचा गया। आखिर वे किसान, मजदूर कहाँ जायेंगे, जीवन यापन कैसे करेंगे? इस मुद्दे पर सकार चुप है। उनकी जमीनों का जबरदस्ती, बिना किसी मुआवजा के भी अधिग्रहण किया जा रहा है। उनके आन्दोलनों को अमानवीय तरीके से कुचला जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र में भेदभाव नहीं किया जा रहा है? प्रिंट मिडिया एवं इलेक्ट्राॅनिक मिडिया इस मुद्दे को सही तरीके से सरकार एवं जनता के सामने लाये, लेकिन सरकार एवं आम जनता के अन्य श्रेणियों का सहयोग अब तक निराशाजनक रहा है। इस प्रकार विधि निर्माताओं ने ऐसे-ऐसे विधान तैयार कर रहे हैं, जिससे सिर्फ आम जनता श्रेणी-1 के हित के हों। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं जिस पर विचार किया जा सकता है।


न्यायपालिकाः- अपुष्ट सूत्रों की माने तो भारतीय न्यायालय में फिलहाल लंबित मामले को निपटाने में लगभग 350 वर्ष लगेंगे , अगर इनमें और कोई नया मुकदमा न जोड़ा जाय तो। जरा सोचिये वर्तमान व्यवस्था में आम जनता श्रेणी3 क्या न्यायालय से न्याय की अपेक्षा कर सकते हैं? श्रेणी4 को न्यायालय के बारे में तो पता ही नहीं है। भारत में न्यायिक प्रणाली इतनी जटिल एवं खर्चीला है, ज्यादातर लोग अत्याचार सहकर भी न्यायालय में नहीं जाना चाहते हैं। हाई प्रोफाईल मुकदमों में तो त्वरित कार्रवाई होती है, बाँकी मुकदमों में न्याय के बदले मिलती है सिर्फ तारीख। न्यायालय के क्रिया-कलापों पर टिप्पणी करना भी महापाप है। न्यायालय के समक्ष न्याय की गुहार करना भी न्यायालय की अवमानना माना जाता है। ताकतवर, रसूखदार मुजरिम ज्यादातर मामले में साम, दाम, दंड के बल पर बाईज्जत बरी हो जाता है, एवं निर्धन निर्दोष भी सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है।


कार्यपालिकाः- कार्यपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि सरकार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन इनके द्वारा ही होता है। भारत में यहाँ भी आम जनता के बीच भेदभाव किया जाता है। भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे सरकार के अंग सिर्फ आम आदमी के हिस्से खाने के लिए बना है। कुछ उत्साही युवा राजनेता मानते हैं कि सरकार के खजाने से निकला एक रूपया जनता तक पहुँचते-पहुँचते दस-बारह पैसा ही रह जाता है। बाँकी पैसे रास्ते में कमीशन के रूप में बँट जाता है। जब वही राजनेता कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं तो उन्हें सिर्फ कुर्सी की चिंता होती है। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट कार्यपालिका के सभी तंत्र में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

No comments: