मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Wednesday, March 12, 2008

हमारा राष्ट्रीय खेल

आज से एक सौ साल बाद हमारे इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में आज के राष्ट्रीय खेल ‘हाॅकी’ से संबंधित एक पाठ होगा। जरा देखिये इस पाठ में किन-किन बातों का समावेश होगा। उस पाठ का शीर्षक एवं पाठ्यांश इस प्रकार होगा-

शीर्षक- इक्कीसवीं सदी के खेल।

पाठ्यांश- बच्चों तुम्हें यह जानकर आश्चर्य एवं खुशी होगा कि इक्कीसवीं सदी में हमारे देश में कई ऐसे खेल खेले जाते थे, जो कम्प्यूटर पर नहीं मैदान में खेले जाते थे। इनमें क्रिकेट, हाॅकी, फुटबाॅल, बैडमिंटन इत्यादि प्रमुख थे। इन खेलों के अन्तराष्ट्रीय स्तर के महान खिलाडि़यों की सूची में भारत के भी कई खिलाडि़यों के नाम शामिल थे। आज जैसे हमारे महान खिलाड़ी कंप्यूटर पर दिमागी खेल में दुनिया के अन्य खिलाडि़यों को पराजित कर यश एवं धन अर्जित कर रहे हैं, इसी तरह इक्कीसवीं सदी में हमारे खिलाड़ी मैदान पर विभिन्न प्रकार के खेल खेलकर यश एवं धन अर्जित करते थे। हाँ उन दिनों के खिलाडि़यों का आय का स्त्रोत एक और भी था- विज्ञापन। हाँ तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि उस जमाने के हमारे खिलाड़ी मैदान में लोकप्रिय होकर विज्ञापन पर भी छाने लगते थे और धन अर्जित करते थे। उस सदी में एक और खास बात थी -खिलाड़ी अपनी मर्जी से नहीं खेलते थे, जैसे आज हमलोग इंटरनेट पर जब चाहे, जिससे चाहे खेलना शुरू कर देते हैं। उस सदी में यह परंपरा नहीं थी। प्रत्येक खेल के आयोजक, प्रायोजक अलग-अलग होते थे और सभी खेलों के अलग-अलग संघ, महासंघ, संगठन एवं कुछ इसी प्रकार के संस्था हुआ करती थी। कुछ खेलों के महासंघ या संगठन तो स्वायत्त संस्था हुआ करती थी तो कुछ के सरकार के नियंत्राधीन संघ। लेकिन सभी लाभदायक खेलों को सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संचालित , प्रायोजित करती थी या सहायता देती थी। हाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है- उस सदी में राजनेताओं के लिए खेल सोने के अंडे देनी वाली मुर्गी के समान था। राजनेता स्वयं अथवा रिश्तेदारों या चहेते नौरशाहों को विभिन्न खेलों के महासंघों, संघों या संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान कर अर्थ लाभ प्राप्त करते थे। कुछ मामले में तो खिलाड़ी भी राजनेताओं के अनुयायी हुआ करते थे। हम अब विभिन्न खेलों के बारे में एक-एक कर जानेंगे। सबसे पहले हाॅकी के बारे में पढ़ेंगेः-


हाॅकीः- पंजाब के गुरदास पुर जिले के निकट एक गाँव में हुई खुदाई के दौरान भारतीय पुरातत्ववेताओं को एक डंडेनुमा आकृति एक गेंद एवं एक नर कंकाल मिला। ठीक उसी समय बंगाल के 24 परगना जिले के एक गाँव में हुई खुदाई के दौरान ठीक इसी प्रकार के एक डंडेनुमा आकृति, एक गेंद एवं कई नर कंकाल मिले। दोनों खुदाई में मिले अवशेषों पर अलग-अलग इतिहासकारों के अगल-अलग विचार थे। अंततः सेटेलाईट का सहारा लिया और इन वस्तुओं के बारे में पूर्ण जानकारी ली गई। जिससे पता चला कि डंडे एवं गेंद से इक्कीसवीं सदी में भारत में खेले जाने वाले खेल हाॅकी खेले जाते थे। इक्कीसवीं सदी में हाॅकी भारत का राष्ट्रीय खेल था।हाॅकी में भारत का दबदवा था एवं आठ बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था, जो उस सदी का विश्वस्तरीय सबसे बड़ा पदक होता था। यहाँ तक कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पुर्व भी भारत हाॅकी में ब्रिटेन से आगे था एवं ब्रिटेन को पराजित कर स्वर्णपदक प्राप्त किया करता था। भारत में लगभग 80 साल तक हाॅकी के लिए स्वर्णिम समय था।


दोनों जगहों से मिले नर कंकालों का डी॰एन॰ए॰ टेस्ट किया गया एवं इसे मानव के डी॰एन॰ए॰ रिकार्ड बैंक को भेजा गया। वहाँ से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में मिले नर कंकाल श्री के॰पी॰एस॰ गिल के थे, एवं बंगाल में मिले नर कंकाल भारतीय हाॅकी टीम के खिलाडि़यों के थे। श्री गिल साहब उस समय के भारतीय हाॅकी महासंघ के महानायक एवं विपक्षी एवं खिलाडि़यों के नजर में खलनायक थे। उनके महासंघ के अध्यक्ष बनते ही हाॅकी को निमोनिया हो गया। दरअसल श्री गिल साहब पंजाब पुलिस के डी॰आई॰जी॰ थे। उन्होंने महासंघ के अध्यक्षता संभालते ही प्रण किया कि भारतीय हाॅकी को मिट्टी में दफन कर देंगे। श्री गिल साहब का राजनीति में कोई पहुँचवाले नेताओं से गहरी घनिष्टता थी, जिसके प्रसादस्वरूप उनको यह पद मिला था। गिल साहब के समक्ष हाॅकी के खिलाड़ी तो क्या महासंघ के अन्य पदाधिकारियों का भी मुँह नहीं खुलता था। वे एक तानशाह थे एवं लगभग 20 वर्षो तक भरतीय हाॅकी महासंंघ पर एकछत्र राज किया। कहने को तो महासंघ में खिलाडि़यों का चयन हेतु चयन समिति भी हुआ करती थी, लोकिन श्री गिल साहब इतने कौशल एवं निति निपुण थे कि वे सारा काम स्वयं करते थे। खिलाड़ी एवं महासंघ के पदाधिकारी तो उनके सामने तो बौने थे ही तात्कालीन खेल मंत्री जी भी उनके क्रिया-कलाप के सामने विवश थे। इसलिए महासंघ के नियम-कानून में सिर्फ आठ वर्ष तक अध्यक्ष बने रहने का प्रावधान होने के बावजूद भी श्री गिल साहब 20 वर्षों तक महासंघ के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। चाहे खिलाड़ी हो, महासंघ के पदाधिकारी हो या खेल मंत्री हो सभी उनके आगे नममस्तक थे।


इक्कीसवीं सदी के भारत के राष्ट्रीय खेल हाॅकी का अंत बेहद दुखद रहा। श्री गिल साहब चाहते थे, भारतीय हाॅकी सिर्फ उनके जीवित रहने तक जीवित रहे। इसलिए वे जी तोड़ परिश्रम कर भारतीय हाॅकी महासंघ एवं हाॅकी एवं इनके खिलाडि़यों को मृतप्राय अवस्था में पहुँचा दिये। एक दिन श्री गिल साहब भारत के हाॅकी के सभी खिलाडि़यों एवं हाॅकी के स्टिक एवं गेदों को इकट्ठा किये। उन्होंने खिलाडि़यों को बंधक बना लिये एवं एक जगह भूमि के अंदर बने एक अंधेरी कमरे में बंद कर दिये। हाॅकी के स्टिक एवं गेदों को जलाकर राख कर दिये। बंधक बने खिलाड़ी भोजन, पानी और हवा के बिना धीरे-धीरे स्वर्गवासी हो गये, लेकिन कुछ बंधक एक स्टिक एवं गेंद के साथ भागने में सफल हो गये, पर श्री गिल के डर के वे दुबारा कभी खेल नहीं सके एवं बंगाल प्रांत के 24 परगाना नामक जगह पर भूख से तड़प कर अपना प्राण त्याग दिये। इधर श्री गिल साहब अपना अभियान में कामयाब होकर पंजाब के गुरदासपुर के निकट समाधि में लीन हो गये। ये थी इक्कीसवीं सदी भारत के राष्ट्रीय खेल हाॅकी एवं उसके महान खलनायक, हाॅकी के हत्यारा श्री के पी एस गिल साहब की कहानी। इस प्रकार श्री गिल का नाम भारतीय हाॅकी के इतिहास में सदा-सदा के लिए अमर हो गया। उनके इस कृत्य के लिए भरत सरकार उन्हें युगों-युगों तक याद रखने हेतु राजनीति में बैठे उनके आकाओं न उन्हें ‘भरत रत्न ’ पुरस्कार से सम्मानित किया।

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