असत्य, हिंसा, दुराग्रह की बहती है,
सदा, अविरल त्रिवेणी गंगा।
व्यभिचार, भ्रष्टाचार में गोता लगा रहे हैं,
देश-सेवक जनसेवक होकर नंगा।
पश्चिमी कूड़ा-कर्कटों को सजा रहे हैं,सब अपने परिवेश में।
गाँधी तेरे देश में।
महावीर का मौन व्रत है।
बुद्ध साधना में लीन है।
सीता हरण से व्यथित राम।
खुद लाचार और दीन है।
रावण घूम रहे हैं फिर साधुओं के वेष में।
गाँधी तेरे देश में।
कृष्ण मर्माहत है।
अर्जुन के अपहरण से।
गीता, प्रवचन त्यागकर समझौता
कर रहे हैं विपक्षी दुष्ट दुर्योधन से।
स्वजन मोह कूट-कूट कर भरा है प्रतापी हिन्द नरेश में।
गाँधी तेरे देश में।
है एक भी इंसान नहीं जो इंसानियत के लिए लड़े।
देखते हैं सब चैराहों पर चीरहरण खड़े-खड़े।
मजबुरियाँ बिकती है गलियों में समानों की तरह।
निर्बलों के चीख से काँपती है भू के जर्रे-जर्रे।
सुधा बाँटे गरल पीकर, अब वह शक्ति कहाँ व्योमकेश में।
गाँधी तेरे देश में।
फल- फूल रहा है राजनीति का धंधा।
लूट रहे हैं सब मिलकार कंधे से कंधा।
जनता नादान हैं यहाँ की कानून है अंधा।
मुजरिम पहनाते है निर्दोषों को फांसी का फंदा।
राजा जाते है कारागार चोरी के केश में ।
गाँधी तेरे देश में।
सरकारी कार्यालय होता है अधिकारियों का विश्रालय।
असली कार्यालय लगता है उनके आवास में।
जनता का सेवक बनकर बैठे हैं जनता का शोषक।
भक्षक घूमते हैं रक्षक के लिवास में ।
तलाश रही है जनता ‘न्याय’ लोकतंत्र के अवशेष में।
गाँधी तेरे देश में।
संजय कुमार निषाद
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