सिमटती गई शनैः शनैः तम की चादर।
छिपते गये चोरों की भांति नभ से नभचर।
फैल गई भू पर रवि रश्मियाँ।
बनी पुष्प खिलकर कलियाँ।
खगकुल करने लगे किलोल।
मानो खोल रहा तानशाह नृप का पोल।
मधुकर दौड़े पुष्पों की ओर।
अपूर्व घटा देख बन में नाचे मोर।
सर्वत्र उमंग है हलचल है।
कण-कण मिलन को विकल है।
पर हँसी के बीच भी कहीं उदासी है।
शवनम से दूब भींगी, पलास प्यासी है।
प्रकृति की यह अनोखा नियम है।
विनोद सागर में भी गम है।
संजय कुमार निषाद
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