मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Friday, March 14, 2008

कल और आज

सिमटती गई शनैः शनैः तम की चादर।

छिपते गये चोरों की भांति नभ से नभचर।

फैल गई भू पर रवि रश्मियाँ।

बनी पुष्प खिलकर कलियाँ।

खगकुल करने लगे किलोल।

मानो खोल रहा तानशाह नृप का पोल।

मधुकर दौड़े पुष्पों की ओर।

अपूर्व घटा देख बन में नाचे मोर।

सर्वत्र उमंग है हलचल है।

कण-कण मिलन को विकल है।

पर हँसी के बीच भी कहीं उदासी है।

शवनम से दूब भींगी, पलास प्यासी है।

प्रकृति की यह अनोखा नियम है।

विनोद सागर में भी गम है।

संजय कुमार निषाद

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