मशाल लेकर जो खड़ा है,
ढ़ूँढ़तें हैं लोग उसे अंधेरों में।
कितना नासमझ है ये दुनिया।
ढ़ूँढ़तें हैं निशान राख के ढ़ेरों में।
कल तक जो अपने थे आज,
एक लकीर की वजह से खड़े हैं गैरों में।
सात नहीं एक जन्म का भी साथ दिला सके,
अब वा ताकत कहाँ है सात फेरों में।
सुख-दुख के आँख मिचैली का खेल है जीवन।
एक न एक दिन काँटा चुभेगा ही सबके पैरों में।
ठिकाना परिन्दों का होता नहीं।
संत-असंत बँधते नहीं हैं घेरों में।
खुद फल खाने में लगे है ये पथ-प्रदर्शक,
दीमक पालकर सच्चाई के पेड़ों में।
ये ईमान की किश्ती है ‘निषाद’
डूबती नहीं है वक्त के थपेड़ों में।
बुत की मानिन्द चैराहे पर खड़ा आज हर इंसान है।
दूसरे को देखकर अपनी हालत से सब परेशान है।
शान-ए-महफिल थी जो कल मेरे यहाँ।
आज किसी और पार्टी में खास मेहमान है।
पैमाना बदल गया, अंदाज बदल गया कौन किससे पूछे?
दागदार आज किसका नहीं गिरेबान है।
महल, शान-शौकत और ईमानदारी की पहचान है।
झोपड़ी में रहने वाले ही शायद भ्रष्ट बेईमान है।
टीका किसी की मजबूरी , तो दाढ़ी किसी के लिए जरूरी है।
ढ़ोंग रचाकर खून चूसना ही उनका धर्म और इमान है।
संजय कुमार निषाद
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