मंजिल तो पाना है।
शिखर पर जाना है।
चाहे कुछ भी हो जाये,
खुद से किये वादा निभाना है।
संजय कुमार निषाद
Tuesday, March 25, 2008
वन्दना
मातेश्वरी तू धन्य है करूँ कैसे बखान।
करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान।
तुम्हारी कृपा से माँ मैंने,
यह दैव दुर्लभ मानव तन पाया।
तुम्हारी दया से फिर इसको,
बल-बुद्धि विद्या का वतन बनाया।
करूँ कैसे विनती में बालक नादान।
करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान।
सूरज सा जल-जलकर जग को प्रकाशित करूँ।
चंदा सा ताप सहके शीतलता वितरित करूँ।
फूलों सा काँटों के बीच रहकर जग को सुगंधित करूँ।
मेघों सा बरस-बरस कर खेतों को हरित करूँ।
दे दो वह शक्तियाँ जिससे करूँ जग का कल्याण।
करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान।
मिल जुल कर जग में रहना सीखूँ।
सहकर खुद औरों का कष्ट हरना सीखूँ।
पर्वतों सा आँधी तूफान में भी अडिग रहकर,
कत्र्तव्य पथ पर निरंतर बढ़ना सीखूँ।
काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहूँ, न हो मन में अभिमान।
करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान।
दया का दीप उर में जलते रहे निरंतर।
निश्चल मन हो प्रेम का गहवर।
शेषित, दलित, उपेक्षित मानवोत्थान हेतु।
सेवा, संघर्ष, समर्पण करता रहूँ जीवन भर।
ताकि उँच, नीच का भेद मिटे, सबका हो मान-सम्मान।
करूँ नित दिन पूजा तेरी माँ दे दो वरदान।
संजय कुमार निषाद
आम जनता एवं सरकार
लोकतांत्रिक गणराज्य भारत में क्या स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष के पूरे होने के बाद भी लोकतंत्र की जड़ें वास्तविक रूप में मजबूत हुई है? कागजों में तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है, लेकिन धरातल पर इसे अभी भी संदेह की नजर से देखा जा सकता है। लोकतंत्र यानि जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर की शासन व्यवस्था। हलांकि संविधान में जनता में भेदभाव की व्यवस्था नहीं है, लेकिन आजादी के बाद से आम जनता के बीच जो भेदभाव किया गया, आज भी जारी है। सरकार की योजनाएँ, परियोजनाएँ, कार्यक्रम एवं घोषणाएँ आम जनता के लिए होती है। लेकिन जब आम जनता का अर्थ भी अनेक हो तो देश का सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है? आज विश्व के सबसे अमीर 10 व्यक्तियों में से चार भारतीय है, लेकिन भूख और कर्ज के बोझ में दबे किसान ओैर मजदूर जितना हमारे यहाँ मरते हैं या आत्महत्या करते है, उतना तो अन्य विकसित देशों में महामारी से भी नहीं मरते हैं। ये सब हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता को दी जाने वाली सुविधों का परिणाम है। दिन-प्रतिदिन शहरों पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। रोज नई-नई स्लम बस्तियों का निर्माण हो रहा है। रेलगाडि़यों में भेड़-बकरियों की तरह लोग सफर कर रहे हैं। भारतीय रेल आम यात्रियों के लिए कम मजदूरों के लिए ज्यादा काम कर रही है। गाँव खाली हो रहा है। किसान मजदूर बनकर घर, राज्य छोड़कर बड़े शहरों की ओर भाग रहे हैं। रेल मंत्रालय नई गाडि़यों की घोषणा कर वोट बैंक पर सेंध लगाना चाहती है, तो वित्त मंत्रालय शेयर बाजार, आयकर, सेवाकर, एवं मंहगाई में उलझे रहते हैं। कृषि मंत्रालय तो खिलाडि़यों की सेवा में ही जुटे रहते हैं। आम जनता फिर भी खुश है या खुश रहने की कोशिश करती है। एक सर्वेक्षण में तो यहाँ तक बताया गया कि भारतीय सबसे ज्यादा खुश रहते हैं। कारण भारतीय सब कुछ सहकर भी हँसना चाहते हैं । दुख को अपनी नियति मानकर जीते हैं।
क्या भारत गणराज्य में आम जनता को समान अधिकार प्राप्त है? क्या सरकार के नजर में सभी जनता एक समान है? मेरे विचार से तो नहीं है। मेरे ख्याल से आम जनता को सरकार चार श्रेणियों में बाँटकर कार्यक्रम बनाती है। पहले आम जनता की चारों श्रेणियों पर विचार करें:-
1. आम जनता श्रेणी-1 यानि अतिविशिष्ट श्रेणी
2. आम जनता श्रेणी-2 यानि विशिष्ट श्रेणी
3. आम जनता श्रेणी-3 यानि सामान्य श्रेणी
4. आम जनता श्रेणी-4 यानि उपेक्षित श्रेणी
इन चारों श्रेणी को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैंः- मान लिजिए सरकार किसी मंदिर के भगवान हैं और आम जनता भक्तगण, तो श्रेणी 1 के भक्तों को कुछ माँगने के लिए मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि भगवान खुद चलकर इन भक्तों के पास आते हैं और बिना मांगे इनको खुश रखने के लिए सब कुछ देकर चले जाते हैं, क्योंकि मंदिर का निर्माण कार्य इनके दिये गये दान से होता है। श्रेणी 2 के भक्तगण जब चाहें मंदिर जाकर भगवान से मनोवांछित फल/वरदान पा सकते हैं। क्योंकि मंदिर के रखरखाव का जिम्मा इनके हाथ होता है। श्रेणी 3 के भक्तगण पर मंदिर के सारे नियम-कानून लागू होता है। देव दर्शन के लिए महीनों कतार में खड़ा रहना पड़ता है, लेकिन वरदान या फल के रूप में मिलता है-अगली बार मिलने के वायदे, क्योंकि ये लोग मंदिर निर्माण कार्य में मजदूर की भूमिका निभाते हैं। श्रेणी-4 के भक्तगण अछूत हैं इनके लिए मंदिर के दरवाजे सदा के लिए बंद होता है। भगवान को इनसे कोई लेना देना नहीं होता है।
भारतीय राजनीति में जबसे गठबंधन की परंपरा की शुरूआत हुई है तब से आम जनता श्रेणी 1 के पाँचों अँगुलियाँ घी में है। ये लोग भिन्न-भिन्न विचार धारा वाले पार्टियों को एक साथ जोड़ने में फेवीकोल का काम करते हैं। बदले में गठबंधन सरकार अपने चलने तक उनको खुश रखने की कोशिश करती है, क्योंकि गठबंधन सरकार कब तक चलेगी, इसकी भविष्यवाणी तो कोई नहीं कर सकता। इस गठबंधन के युग में धर्म, वर्ग, जाति, भाषा, क्षेत्र आधारित राजनीतिक पार्टियाँ खड़ी हो गई है एवं हो रही है जो देश की एकता एवं अखंडता के लिए खतरनाक हो सकता है। आम जनता श्रेणी 4 यानि उपेक्षित श्रेणी न तो सरकार को अब तक जानती है न ही सरकार इनको जानना चाहती है? देश में आज भी हजारों गाँव ऐसे हैं जहाँ पानी, सड़क, बिजली, पाठशाला, चिकित्सालय नहीं हैं। उन लोगों के बारे में सरकार की कोई योजना नहीं होती है, क्योंकि उन लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई आधार नहीं है। ये लोग देश में बिल्कुल उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। ये न तो प्रधानमंत्री को जानते हैं न मुख्यमंत्री को। सरकार को भी इनकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि वोट की राजनीति में ये श्रेणी गरीब है। इनकी वोट की कोई ताकत नहीं है। नक्सलवाद इसी का परिणाम है।
शासन के तीनों अंग- व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायापालिका में आम जनता में किस प्रकार भेदभाव होता है, जरा देखियें:-
व्यवस्थापिकाः- सेज (SEZ) बनाने के लिए जो अधिनियम बनाया गया उसमें आम जनता श्रेणी-1 को लाभ पहुँचाने के लिए आम जनता श्रेणी-3 एवं 4 के सारे अधिकार छीन लिये गये। किसान जिनकी खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण की जायेगी एवं खेतीहर मजदूर जो उस भूमि पर मजदूरी करके गुजारा करते थे के बारे में कुछ भी नहीं सोचा गया। आखिर वे किसान, मजदूर कहाँ जायेंगे, जीवन यापन कैसे करेंगे? इस मुद्दे पर सकार चुप है। उनकी जमीनों का जबरदस्ती, बिना किसी मुआवजा के भी अधिग्रहण किया जा रहा है। उनके आन्दोलनों को अमानवीय तरीके से कुचला जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र में भेदभाव नहीं किया जा रहा है? प्रिंट मिडिया एवं इलेक्ट्राॅनिक मिडिया इस मुद्दे को सही तरीके से सरकार एवं जनता के सामने लाये, लेकिन सरकार एवं आम जनता के अन्य श्रेणियों का सहयोग अब तक निराशाजनक रहा है। इस प्रकार विधि निर्माताओं ने ऐसे-ऐसे विधान तैयार कर रहे हैं, जिससे सिर्फ आम जनता श्रेणी-1 के हित के हों। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं जिस पर विचार किया जा सकता है।
न्यायपालिकाः- अपुष्ट सूत्रों की माने तो भारतीय न्यायालय में फिलहाल लंबित मामले को निपटाने में लगभग 350 वर्ष लगेंगे , अगर इनमें और कोई नया मुकदमा न जोड़ा जाय तो। जरा सोचिये वर्तमान व्यवस्था में आम जनता श्रेणी3 क्या न्यायालय से न्याय की अपेक्षा कर सकते हैं? श्रेणी4 को न्यायालय के बारे में तो पता ही नहीं है। भारत में न्यायिक प्रणाली इतनी जटिल एवं खर्चीला है, ज्यादातर लोग अत्याचार सहकर भी न्यायालय में नहीं जाना चाहते हैं। हाई प्रोफाईल मुकदमों में तो त्वरित कार्रवाई होती है, बाँकी मुकदमों में न्याय के बदले मिलती है सिर्फ तारीख। न्यायालय के क्रिया-कलापों पर टिप्पणी करना भी महापाप है। न्यायालय के समक्ष न्याय की गुहार करना भी न्यायालय की अवमानना माना जाता है। ताकतवर, रसूखदार मुजरिम ज्यादातर मामले में साम, दाम, दंड के बल पर बाईज्जत बरी हो जाता है, एवं निर्धन निर्दोष भी सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है।
कार्यपालिकाः- कार्यपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि सरकार के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन इनके द्वारा ही होता है। भारत में यहाँ भी आम जनता के बीच भेदभाव किया जाता है। भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे सरकार के अंग सिर्फ आम आदमी के हिस्से खाने के लिए बना है। कुछ उत्साही युवा राजनेता मानते हैं कि सरकार के खजाने से निकला एक रूपया जनता तक पहुँचते-पहुँचते दस-बारह पैसा ही रह जाता है। बाँकी पैसे रास्ते में कमीशन के रूप में बँट जाता है। जब वही राजनेता कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं तो उन्हें सिर्फ कुर्सी की चिंता होती है। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट कार्यपालिका के सभी तंत्र में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
दोस्त दोस्त न रहा
दिल्ली पुलिस के ‘सुपरकॉप’ एन काउंटर स्पेशलिस्ट एसीपी राजबीर सिंह की हत्या प्रोपर्टी डीलर विजय भारद्वाज द्वारा कर दी गई। वही विजय भारद्वाज जो उनके करीबी दोस्त थे और शायद दोस्त नहीं भी थे। एक सब इंस्पेक्टर से दिल्ली पुलिस में नौकरी की शुरूआत करने वाले राजवीर सिंह तेज तर्रार छवि एवं मास्टर माइंड होने के कारण जल्दी-जल्दी पदोन्नति पाने के साथ-साथ दिल्ली पुलिस के सबसे उपयोगी अधिकारी थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में 56 एनकाउंटर करने के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण मामले को भी सुलझाये। जिसके वजह से उन्हें राष्ट्रपति पदक भी मिला था। हलांकि उनकी छवि पर धब्बा भी लगा, लेकिन उनकी उपयोगिता के कारण उन्हें प्रायः महत्वपूर्ण पद मिलता रहा। यहाँ तक कि उन्हें जेड श्रेणी के सुरक्षा व्यवस्था खुद को सुरक्षित रखने के लिए प्राप्त था। हाय री किस्मत दोस्त ने सभी सुरक्षा व्यवस्था तोड़कर अपने रास्ते से हटा दिया। सच ही कहा गया है- घर का भेदी लंका डाहे। एक व्यापारी दोस्त को एक अधिकारी/सुरक्षा प्रहरी दोस्त से जान का खतरा था, तो रास्ते से तो हटाना लाजिमी था। आजकल कृष्ण-सुदामा या दुर्योधन-कर्ण जैसी मित्रता निभायी तो व्यापार तो करने से रहे। बाजार में तो अब सबकुछ बिकने लगा। मकान, दुकान एवं घर-गृहस्थी का सभी समान। रिश्ते जोड़ने के लिए दुकान है, तो दोस्ती कराने के लिए दुकान है। मिनटों में जीवन साथी पाईये या हजारों दोस्त बनाइये। जब इतनी सुविधाएँ उपलब्ध है तो बचपन का लंगोटिया यार से कब तक यारी निभाया जाय। इंटरनेट का जमाना है- लाखों इंतजार कर रहें हैं दोस्ती के लिए। व्यापार में तो दोस्ती में भी मंदी-तेजी का समावेश होता है। व्यापार छल-प्रपंच के बिना चलता कहाँ है? व्यापार में जुगाड़ की उपयोगिता से तो सभी वाकिफ है। खासकर प्रोपर्टी बाजार में बने रहना है तो तीनों का जुगाड़-अपराधी, पुलिस एवं राजनेता का करना ही पड़ेगा। ऐसे में दोसती तो सिर्फ काम भर से हो सकता है। किसी से खतरा महशूश हो रास्ते से हटा दिजिये और चलते रहिये। एसीपी साहब में यारी एवं जुगाड़ दोनों का समावेश था। अब पुलिस वाले को भी सोचना पड़ेगा कि वर्तमान समय में यारी अच्छी नहीं होती। अगर रूपया ही कमाना है तो कमाईये लेकिन दोस्ती मत किजिये वर्णा एनकाउंटर हो सकता है।
Monday, March 24, 2008
गुरू गोविन्द दोऊँ खड़े
हमारे समाज में गुरू (शिक्षक) को गोविन्द (ईश्वर) से भी बढ़कर सम्मान दिया जाता है। इसलिए कहा गया -
गुरू गोविन्द्र दोऊँ खड़े काके लागूँ पायं
बलिहारी गुरू की जो गोविन्द दियो बताय।।
अर्थात शिक्षक और ईश्वर एक साथ मिले तो पहले शिक्षक को प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि ईश्वर के बारे में उन्हीं से ज्ञान होता है। आधुनिकता के इस दौर में जहाँ सभी रिश्ते-नाते के बीच खटास पैदा हो रही है और रिश्ते बेईमानी सी लगने लगा है। गुरू शिष्य के रिश्ते भी अछूता नहीं रहा। आजकल शिक्षालयों की कई श्रेणी हो गई और गुरू-शिष्य के नाम भी अलग-अलग हो गये। मसलन निजि (व्यवसायिक) मॉडल स्कूल में टीचर-स्टुडेंट, राजकीय विद्यालय में शिक्षक-छात्र एवं आध्यात्मिक, धार्मिक संस्थाओं द्वारा संचालित उपेक्षित एवं पिछड़े वर्गों के लिए आश्रम रूपी शिक्षालय में गुरू-शिष्य।
गुरू शिष्य के रिश्ते को ताड़-ताड़ करने वाली घटना लगभग तीनों प्रकार के विद्यालयों में घटित हो रही है। माॅडल स्कूल में टीचर स्टुडेंट से इश्क फरमाते रहे हैं। राजकीय विद्यालय में छात्राओं का यौन शोषण हो रहा है एवं आश्रम द्वारा संचालित पाठशाला के गुरूजी, अपने शिष्या के साथ बलात्कार कर रहे हैं। आजकल आपको आधुनिक विद्यालय, महाविद्यालय में अनेक मटुकनाथ मिल जायेंगे, जो गुरू-शिष्य के रिश्ते को कलंकित कर प्रेम की नई परिभाषा दे रहे हों।
दिल्ली नगर निगम ने एक प्रस्ताव पारित कर निगम के बालिका विद्यालयो में शिक्षकों द्वारा यौन शोषण की बढ़ती घटना को देखकर वहाँ से पुरूष शिक्षक को हटाने की घोषणा की है। यह कदम सराहनीय तो कहा जा सकता है, लेकिन भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। व्यवहारिक तौर पर यह सब जगह संभव भी नहीं है, और भविष्य में इससे दूसरी परेशानी भी उत्पन्न हो सकती है। यह कदम अनुचित तो नहीं है लेकिन दूसरे विकल्पों की भी तलाश की जानी चाहिए थी, क्योंकि सरकार सह-शिक्षा पर भी जोर दे रही है, ताकि बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास हो सके।
हाल में ही बलसाड़ (गुजरात) में नीलपर्ण आश्रम द्वारा संचालित पाठशाला के एक गुरूजी द्वारा अपनी ही नाबालिग शिष्या के साथ बलात्कार किया गया। छात्रा द्वारा पाठशाला के प्राचार्य महोदय से इस घटना की शिकायत करने पर मामला पुलिस को सौंपा गया। इस घटना के बाद पाठशाला के अन्य छात्राओं द्वारा वहाँ के प्राचार्य पर भी यौन-शोषण का आरोप लगाया गया। यह घटना शर्मनाक एवं निंदनहीय तो हैं ही साथ ही समाज एवं सरकार को सोचने के लिए बाध्य भी कर रही है। समाज एवं सरकार को सतर्क रहने की आवश्यकता है ताकि इस तरह की घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो। ऐसे चरित्रहीन टीचर, शिक्षक एवं गुरूओं के लिए कठोरतम सजा का प्रावधान हो, ताकि दूसरा कोई इस तरह की नीच हरकत नहीं कर सके। अन्यथा भविष्य में हमारी बहनें, बेटियाँ, गुरूजी के बारे में ऐसा कहेगी-
गुरू बनके भक्षक खड़े कैसी लागूँ पाय।
अत्याचारी गुरू ने आबरू दियो लुटाय।।
Friday, March 14, 2008
मशाल एवं इंसान
मशाल लेकर जो खड़ा है,
ढ़ूँढ़तें हैं लोग उसे अंधेरों में।
कितना नासमझ है ये दुनिया।
ढ़ूँढ़तें हैं निशान राख के ढ़ेरों में।
कल तक जो अपने थे आज,
एक लकीर की वजह से खड़े हैं गैरों में।
सात नहीं एक जन्म का भी साथ दिला सके,
अब वा ताकत कहाँ है सात फेरों में।
सुख-दुख के आँख मिचैली का खेल है जीवन।
एक न एक दिन काँटा चुभेगा ही सबके पैरों में।
ठिकाना परिन्दों का होता नहीं।
संत-असंत बँधते नहीं हैं घेरों में।
खुद फल खाने में लगे है ये पथ-प्रदर्शक,
दीमक पालकर सच्चाई के पेड़ों में।
ये ईमान की किश्ती है ‘निषाद’
डूबती नहीं है वक्त के थपेड़ों में।
बुत की मानिन्द चैराहे पर खड़ा आज हर इंसान है।
दूसरे को देखकर अपनी हालत से सब परेशान है।
शान-ए-महफिल थी जो कल मेरे यहाँ।
आज किसी और पार्टी में खास मेहमान है।
पैमाना बदल गया, अंदाज बदल गया कौन किससे पूछे?
दागदार आज किसका नहीं गिरेबान है।
महल, शान-शौकत और ईमानदारी की पहचान है।
झोपड़ी में रहने वाले ही शायद भ्रष्ट बेईमान है।
टीका किसी की मजबूरी , तो दाढ़ी किसी के लिए जरूरी है।
ढ़ोंग रचाकर खून चूसना ही उनका धर्म और इमान है।
संजय कुमार निषाद
मानव
आज का मानव एक सरल रेखा पर दौड़ रहे हैं बेतहाशा।
क्षण भर में वे अपने लक्ष्य को पाने का करते हैं आशा।
उन्हें फुरसत नहीं हैं, पीछे देखने की।
उन्हें जरूरत नहीं है, बगल झाँकने की।
उन्हें जरूरत नहीं है औरों के साथ चलने की।
उन्हें आदत नहीं हैं अपनी गति आँकने की।
उन्हें फिर भी घेरती नहीं है कभी निराशा।
क्योंकि वे सिर्फ अपनी मकसद के लिए जीते हैं।
उन्हें सिर्फ अपनी लक्ष्य की पचान है।
बंधु-बांधव से उन्हें सिर्फ नाम का नाता है।
दौलत की रोशनी ही उनकी शान है।
दौलत ही बदल दी है उनकी पाशा।
आत्मा को उन्होंने कैद कर रखा है।
इसके बगैर वे जिंदगी का नवरस चखा है।
अपनी किस्मत को खुद ही,
दूसरों के रक्त से लिखा है।
उनके बाजुओं में ताकत है अच्छा खासा।
राम-रहीम से नाता पुराना हो गया है।
मंदिर-मस्जिद गिरजे लूटने का ठिकाना हो गया है।
कहने को जात-पाँत का भेदभाव मिटा रहा है।
पर धर्म चरित्र उनका पहला निशाना है।
हर रोज कर रहे हैं नये-नये तमाशा।
संजय कुमार निषाद
कल और आज
सिमटती गई शनैः शनैः तम की चादर।
छिपते गये चोरों की भांति नभ से नभचर।
फैल गई भू पर रवि रश्मियाँ।
बनी पुष्प खिलकर कलियाँ।
खगकुल करने लगे किलोल।
मानो खोल रहा तानशाह नृप का पोल।
मधुकर दौड़े पुष्पों की ओर।
अपूर्व घटा देख बन में नाचे मोर।
सर्वत्र उमंग है हलचल है।
कण-कण मिलन को विकल है।
पर हँसी के बीच भी कहीं उदासी है।
शवनम से दूब भींगी, पलास प्यासी है।
प्रकृति की यह अनोखा नियम है।
विनोद सागर में भी गम है।
संजय कुमार निषाद
Wednesday, March 12, 2008
हमारा राष्ट्रीय खेल
आज से एक सौ साल बाद हमारे इतिहास के पाठ्य पुस्तकों में आज के राष्ट्रीय खेल ‘हाॅकी’ से संबंधित एक पाठ होगा। जरा देखिये इस पाठ में किन-किन बातों का समावेश होगा। उस पाठ का शीर्षक एवं पाठ्यांश इस प्रकार होगा-
शीर्षक- इक्कीसवीं सदी के खेल।
पाठ्यांश- बच्चों तुम्हें यह जानकर आश्चर्य एवं खुशी होगा कि इक्कीसवीं सदी में हमारे देश में कई ऐसे खेल खेले जाते थे, जो कम्प्यूटर पर नहीं मैदान में खेले जाते थे। इनमें क्रिकेट, हाॅकी, फुटबाॅल, बैडमिंटन इत्यादि प्रमुख थे। इन खेलों के अन्तराष्ट्रीय स्तर के महान खिलाडि़यों की सूची में भारत के भी कई खिलाडि़यों के नाम शामिल थे। आज जैसे हमारे महान खिलाड़ी कंप्यूटर पर दिमागी खेल में दुनिया के अन्य खिलाडि़यों को पराजित कर यश एवं धन अर्जित कर रहे हैं, इसी तरह इक्कीसवीं सदी में हमारे खिलाड़ी मैदान पर विभिन्न प्रकार के खेल खेलकर यश एवं धन अर्जित करते थे। हाँ उन दिनों के खिलाडि़यों का आय का स्त्रोत एक और भी था- विज्ञापन। हाँ तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि उस जमाने के हमारे खिलाड़ी मैदान में लोकप्रिय होकर विज्ञापन पर भी छाने लगते थे और धन अर्जित करते थे। उस सदी में एक और खास बात थी -खिलाड़ी अपनी मर्जी से नहीं खेलते थे, जैसे आज हमलोग इंटरनेट पर जब चाहे, जिससे चाहे खेलना शुरू कर देते हैं। उस सदी में यह परंपरा नहीं थी। प्रत्येक खेल के आयोजक, प्रायोजक अलग-अलग होते थे और सभी खेलों के अलग-अलग संघ, महासंघ, संगठन एवं कुछ इसी प्रकार के संस्था हुआ करती थी। कुछ खेलों के महासंघ या संगठन तो स्वायत्त संस्था हुआ करती थी तो कुछ के सरकार के नियंत्राधीन संघ। लेकिन सभी लाभदायक खेलों को सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संचालित , प्रायोजित करती थी या सहायता देती थी। हाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है- उस सदी में राजनेताओं के लिए खेल सोने के अंडे देनी वाली मुर्गी के समान था। राजनेता स्वयं अथवा रिश्तेदारों या चहेते नौरशाहों को विभिन्न खेलों के महासंघों, संघों या संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान कर अर्थ लाभ प्राप्त करते थे। कुछ मामले में तो खिलाड़ी भी राजनेताओं के अनुयायी हुआ करते थे। हम अब विभिन्न खेलों के बारे में एक-एक कर जानेंगे। सबसे पहले हाॅकी के बारे में पढ़ेंगेः-
हाॅकीः- पंजाब के गुरदास पुर जिले के निकट एक गाँव में हुई खुदाई के दौरान भारतीय पुरातत्ववेताओं को एक डंडेनुमा आकृति एक गेंद एवं एक नर कंकाल मिला। ठीक उसी समय बंगाल के 24 परगना जिले के एक गाँव में हुई खुदाई के दौरान ठीक इसी प्रकार के एक डंडेनुमा आकृति, एक गेंद एवं कई नर कंकाल मिले। दोनों खुदाई में मिले अवशेषों पर अलग-अलग इतिहासकारों के अगल-अलग विचार थे। अंततः सेटेलाईट का सहारा लिया और इन वस्तुओं के बारे में पूर्ण जानकारी ली गई। जिससे पता चला कि डंडे एवं गेंद से इक्कीसवीं सदी में भारत में खेले जाने वाले खेल हाॅकी खेले जाते थे। इक्कीसवीं सदी में हाॅकी भारत का राष्ट्रीय खेल था।हाॅकी में भारत का दबदवा था एवं आठ बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था, जो उस सदी का विश्वस्तरीय सबसे बड़ा पदक होता था। यहाँ तक कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पुर्व भी भारत हाॅकी में ब्रिटेन से आगे था एवं ब्रिटेन को पराजित कर स्वर्णपदक प्राप्त किया करता था। भारत में लगभग 80 साल तक हाॅकी के लिए स्वर्णिम समय था।
दोनों जगहों से मिले नर कंकालों का डी॰एन॰ए॰ टेस्ट किया गया एवं इसे मानव के डी॰एन॰ए॰ रिकार्ड बैंक को भेजा गया। वहाँ से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में मिले नर कंकाल श्री के॰पी॰एस॰ गिल के थे, एवं बंगाल में मिले नर कंकाल भारतीय हाॅकी टीम के खिलाडि़यों के थे। श्री गिल साहब उस समय के भारतीय हाॅकी महासंघ के महानायक एवं विपक्षी एवं खिलाडि़यों के नजर में खलनायक थे। उनके महासंघ के अध्यक्ष बनते ही हाॅकी को निमोनिया हो गया। दरअसल श्री गिल साहब पंजाब पुलिस के डी॰आई॰जी॰ थे। उन्होंने महासंघ के अध्यक्षता संभालते ही प्रण किया कि भारतीय हाॅकी को मिट्टी में दफन कर देंगे। श्री गिल साहब का राजनीति में कोई पहुँचवाले नेताओं से गहरी घनिष्टता थी, जिसके प्रसादस्वरूप उनको यह पद मिला था। गिल साहब के समक्ष हाॅकी के खिलाड़ी तो क्या महासंघ के अन्य पदाधिकारियों का भी मुँह नहीं खुलता था। वे एक तानशाह थे एवं लगभग 20 वर्षो तक भरतीय हाॅकी महासंंघ पर एकछत्र राज किया। कहने को तो महासंघ में खिलाडि़यों का चयन हेतु चयन समिति भी हुआ करती थी, लोकिन श्री गिल साहब इतने कौशल एवं निति निपुण थे कि वे सारा काम स्वयं करते थे। खिलाड़ी एवं महासंघ के पदाधिकारी तो उनके सामने तो बौने थे ही तात्कालीन खेल मंत्री जी भी उनके क्रिया-कलाप के सामने विवश थे। इसलिए महासंघ के नियम-कानून में सिर्फ आठ वर्ष तक अध्यक्ष बने रहने का प्रावधान होने के बावजूद भी श्री गिल साहब 20 वर्षों तक महासंघ के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। चाहे खिलाड़ी हो, महासंघ के पदाधिकारी हो या खेल मंत्री हो सभी उनके आगे नममस्तक थे।
इक्कीसवीं सदी के भारत के राष्ट्रीय खेल हाॅकी का अंत बेहद दुखद रहा। श्री गिल साहब चाहते थे, भारतीय हाॅकी सिर्फ उनके जीवित रहने तक जीवित रहे। इसलिए वे जी तोड़ परिश्रम कर भारतीय हाॅकी महासंघ एवं हाॅकी एवं इनके खिलाडि़यों को मृतप्राय अवस्था में पहुँचा दिये। एक दिन श्री गिल साहब भारत के हाॅकी के सभी खिलाडि़यों एवं हाॅकी के स्टिक एवं गेदों को इकट्ठा किये। उन्होंने खिलाडि़यों को बंधक बना लिये एवं एक जगह भूमि के अंदर बने एक अंधेरी कमरे में बंद कर दिये। हाॅकी के स्टिक एवं गेदों को जलाकर राख कर दिये। बंधक बने खिलाड़ी भोजन, पानी और हवा के बिना धीरे-धीरे स्वर्गवासी हो गये, लेकिन कुछ बंधक एक स्टिक एवं गेंद के साथ भागने में सफल हो गये, पर श्री गिल के डर के वे दुबारा कभी खेल नहीं सके एवं बंगाल प्रांत के 24 परगाना नामक जगह पर भूख से तड़प कर अपना प्राण त्याग दिये। इधर श्री गिल साहब अपना अभियान में कामयाब होकर पंजाब के गुरदासपुर के निकट समाधि में लीन हो गये। ये थी इक्कीसवीं सदी भारत के राष्ट्रीय खेल हाॅकी एवं उसके महान खलनायक, हाॅकी के हत्यारा श्री के पी एस गिल साहब की कहानी। इस प्रकार श्री गिल का नाम भारतीय हाॅकी के इतिहास में सदा-सदा के लिए अमर हो गया। उनके इस कृत्य के लिए भरत सरकार उन्हें युगों-युगों तक याद रखने हेतु राजनीति में बैठे उनके आकाओं न उन्हें ‘भरत रत्न ’ पुरस्कार से सम्मानित किया।
Tuesday, March 11, 2008
गाँधी तेरे देश में
असत्य, हिंसा, दुराग्रह की बहती है,
सदा, अविरल त्रिवेणी गंगा।
व्यभिचार, भ्रष्टाचार में गोता लगा रहे हैं,
देश-सेवक जनसेवक होकर नंगा।
पश्चिमी कूड़ा-कर्कटों को सजा रहे हैं,सब अपने परिवेश में।
गाँधी तेरे देश में।
महावीर का मौन व्रत है।
बुद्ध साधना में लीन है।
सीता हरण से व्यथित राम।
खुद लाचार और दीन है।
रावण घूम रहे हैं फिर साधुओं के वेष में।
गाँधी तेरे देश में।
कृष्ण मर्माहत है।
अर्जुन के अपहरण से।
गीता, प्रवचन त्यागकर समझौता
कर रहे हैं विपक्षी दुष्ट दुर्योधन से।
स्वजन मोह कूट-कूट कर भरा है प्रतापी हिन्द नरेश में।
गाँधी तेरे देश में।
है एक भी इंसान नहीं जो इंसानियत के लिए लड़े।
देखते हैं सब चैराहों पर चीरहरण खड़े-खड़े।
मजबुरियाँ बिकती है गलियों में समानों की तरह।
निर्बलों के चीख से काँपती है भू के जर्रे-जर्रे।
सुधा बाँटे गरल पीकर, अब वह शक्ति कहाँ व्योमकेश में।
गाँधी तेरे देश में।
फल- फूल रहा है राजनीति का धंधा।
लूट रहे हैं सब मिलकार कंधे से कंधा।
जनता नादान हैं यहाँ की कानून है अंधा।
मुजरिम पहनाते है निर्दोषों को फांसी का फंदा।
राजा जाते है कारागार चोरी के केश में ।
गाँधी तेरे देश में।
सरकारी कार्यालय होता है अधिकारियों का विश्रालय।
असली कार्यालय लगता है उनके आवास में।
जनता का सेवक बनकर बैठे हैं जनता का शोषक।
भक्षक घूमते हैं रक्षक के लिवास में ।
तलाश रही है जनता ‘न्याय’ लोकतंत्र के अवशेष में।
गाँधी तेरे देश में।
संजय कुमार निषाद
Monday, March 3, 2008
खोजो तो जरा।
खोजो तो जरा।
पथ्थरों में ढृढता।
पुष्पों में कोमलता।
झड़नों में चंचलता।
हिमखंड में शीतलता।
मंद समीर में मादकता।
वाणी में मधुरता।
लवों पर माधुर्यता।
मित्रों में मित्रता।
शत्रुतों में बैरता।
दम्पतियों में सरसता।
युवाओं में चुम्बकता।
मानव में समता।
सज्जनों में क्षमता।
बेईमानों में निर्धनता।
इंसानों में मानवता।
है क्या अब भी बचा?
खोजो तो जरा।
संजय कुमार निषाद
होली आई
रंग-गुलाल और लेकर फाल्गुनी वयार।
मधुमास में होली आई।
आम्र मंजरों की गंध।
दरख्त के नव पल्लवों के संग।
चहुँ ओर हरियाली लाई।
मधुमास में होली आई।
प्रकृति रानी सजी नव परिधान में।
गा रही पीकी सुरीली तान में।
भँवरों का विरह गीत सबको भायी।
मधुमास में होली आई।
भेदभाव बैरता मिटाने।
भाईचारा का पाठ पढ़ाने।
प्रेम के विविध रंगों में,
जग के कोना-कोना को रंगाने।
बच्चे बूढ़े और युवाओं में है नव उमंग छाई।
मधुमास में होली आई।
संजय कुमार निषाद
विकास के नये फार्मूले
महाराष्ट्र के हाल के घटनाक्रम में भारत को एक अनमोल रत्न मिला। माननीय राजनेता श्री राज ठाकरे जी को महाराष्ट्र के विकास पुरूष ओैर महान चिंतक कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। विकासवाद के भाषा एवं क्षेत्र आधारित सिद्धांत महाराष्ट्र को देकार उन्होंने भारतीय अर्थशास्त्रियों को मात दे दिये । आशा है मराठाभाषी उन्हें युगों युगों तक याद करेंगे, इस नवीन सिद्धांत के लिए । मेरी माने तो यथाशीघ्र उन्हें, नोबेल पुरस्कार एवं भारत रत्न मिल जानी चाहिए । महाराष्ट्र की धरती जो ज्योति बा फुले एवं बाबा साहब अंबेडकर के लिए जाने जाती हैं अब राज ठाकरे से जानी जायेगी । अगर श्री ठाकरे एकाध सदी पहले महाराष्ट्र की धरती पर जन्म लेते तो आज महाराष्ट्र की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य कुछ और होता । वहाँ के मराठाभाषी को गरीबी जैसे सामाजिक कलंक का मुँह नहीं देखना पड़ता । श्री ठाकरे को इस नवीन सिद्धांत के लिए लाख-लाख बधाई ।
आगे विकास के भाषा एवं क्षेत्र आधारित इस नवीन फार्मूले पर सूक्ष्म विवेचना करंेगे ।
फार्मूला ः महाराष्ट्र सिर्फ मराठी भाषी के लिए है । यानि अन्य भाषा-भाषी को महाराष्ट्र में नहीं रहना चाहिए, इससे ही महाराष्ट्र का विकास होगा, मराठियों को रोजगार मिलेगा फलतः गरीबी मिटेगा ।
समर्थन ः महाराष्ट्र के बड़े शहरांे के कुछ लोगों को श्री ठाकरे का फार्मूला पसंद आया एवं लोगों ने इन शहरों से अन्य भाषा-भाषी लोगों को मारपीटकर बाहर निकालना शुरू कर दिया है ।
तात्कालिक लाभ-महाराष्ट्र के बड़े शहरों से जब अन्य भाषा भाषी लोगों को मार-पीट कर जबरदस्ती बाहर निकाला जायेगा, तो उनकी सम्पत्ति, कारोबार एवं रोजगार मराठियों को मुफ्त में मिल जायेंगी । इस प्रकार मराठियों को तुरंत लूटी हुयी संप+ित्त, छोड़े हुए कारोबार एवं छुटे हुए रोजगार मिल जायेंगे । फलतः वे तात्कालिक लाभ के रूप वे सब कुछ पा लेंगे जो गरीबी मिटाने के लिए काफी होगा ।
दीघ्रकालीन योजना - इस फार्मूले को भविष्य में राजनीतिक पार्टियों की तरह विस्तार किया जायेगा । यानि राज्य से जिला, जिला से कस्बा, कस्बा से गाँव, एवं गाँव से घर-घर ले जाने का प्रयास किया जायेगा । जिस दिन ऐसा हो जायेगा । समझ लिजिए महाराष्ट्र का कायाकल्प हो जायेगा । वहाँ के प्रत्येक लोगों के पास रिलांयस जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियां होगी । अमेरिका जैसा देश मराठियों से कर्ज मांगेगा । आप जानना चाहेंगे कैसे तो सुनिये-जब इस फार्मूले को पहले बड़े शहरांे मे लागू किया जायेगा तो वहाँ से अन्य भाषा-भाषी जो कारोबार एवं रोजगार छोड़कर जाऐंगे, मराठियों को मिलेगा। फिर महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद पर काम किया जायेगा। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र के लोगों को मारपीट कर निकाल जाऐगा, इससे भी सभी क्षेत्र के लोगों को रोजगार एवं कारोबार मिलेगा। इसके बाद जिलास्तर पर काम होगा, फिर कस्बास्तर पर, फिर गाँवस्तर पर और सबसे अंत में परिवार स्तर पर। जब परिवार स्तर पर काम होगा तब इसकी असली फायदे नजर आयेगें। परिवार के एक-एक सदस्य रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यकताओं की पूत्र्ति के लिए खुद मेहनत करेगें। इससे परिवार के प्रत्येक सदस्य का खुद का खेती होगा, कपड़े बनानेवाली खुद की कंपनी होगी, जिसमें वे स्वयं सभी काम करेगें एवं देखेंगे। मकान के लिए आवश्यक वस्तुओं का खुद निर्माण करेगें एवं संबधित कारखाना खुद लगायेगे। इससे प्रत्येक मराठी का खुद का हजारों कारखाने हो जायेंगे। सोचिये मराठी तब कितने तरक्की करेंगे?
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