मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Sunday, January 1, 2017

मुफ्तजीवि भव:।

सदियों से मॉं—बाप एवं बुजुर्ग अपने बच्चों को विजयी भव:, यशश्वी भव:, खुब फलों—फूलों इत्यादि आशाीर्वाद देते रहे हैं।  अब उन्हें लग रहा है कि शायद यह आशीर्वाद अब उचित एवं सामयिक नहीं हैं।  प्राचीन हो चुका है।  समय संगत भी नहीं है।  आशीर्वाद पर फिर से विचार करना तर्मसंगत भी है।  मुझे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब माता—पिता एवं बुजुर्ग अपने बच्चों को मुफ्तजीवि भव: का आशीर्वाद देगें।  यह ​उचित, तकसंगत, लाभदायक एवं अपडेटेड भी है।  आज भारत के भाग्य विधातों के पास यही तो एक असरदार हथियार है, जिसके सहारे वे अपनी नैया को अनेक प्रकार के झंझावतों के बावजूद पर लगा लेते हैं।  ग्राम प्रधानी से लेकर प्रधानमंत्री तक का सपना इस मुफ्त नामक एटम बम को गिराकर पूरा कर सकते हैं।  गरीबों को मुफ्त अनाज पानी,बिजली, पक्का मकान, मोबाईल, रंगीन टेलीविजन, फ्रिज, लेपटॉप, साईकिल, मोटरसा​ईकिल इत्यादि देने के वायदे एवं उसपर समल कर तो सत्ता की उॅंची से उॅंची सीढ़ी तो पार कर ही चुके हैं। अब बचा क्या है, मुफ्त में देने को इस पर सोचना बॉंकी है। 

सत्ताधीशों एवं सत्ता के आस लगाये भाग्यविधाताओं के चिंतन शिविर में इस मसले का हल निकाला जा रहा है। गरीबों को भी अपने चौपहिया गाड़ी से चलने का मन तो करता ही होगा।  आखिर आधे दर्जन से लेकर दर्जन भर बच्चों को दुपहिया मड़ियल साईकिल पर कहॉं फिट कर पायेंगे।  तो कम से कम चौपहिया वाहन तो चाहिए ही। साथ ही आकाश में गरजते हुए हवाई जहाज को देखकर गरीबों का भी मन विचलित होता है।  आखिर इस देश पर उनका भी तो बराबर का हक ।  क्यों ने प्रत्येक गरीब परिवार को मुफ्त में एक चौपहिया वाहन का इंतजाम सरकार के तरफ से किया जाय।  साल में एक बार देश के किसी हिस्से का मुफ्त में हवाई सैर और दो साल में एक बार अगर संभव नहीं हो तो कम से कम चुनाव के पहले यानि हर पॉंचवे साल गरीब परिवार को विदेश यात्रा मुफ्त में हवाई जहाज से करवाया जाए।  तब जाके सबको समान अधिकार मिलेगा।  जरा सोचिये यदि चुनावी घोषणाओं मे मुफ्त् मिलने वाली सुविधाओं में ये दोनों चीजें जुट जायेगी तो देश का कितना भला होगा।  और इन भाग्यविधातों के जेब से क्या जायेगा।  आखिर टैक्स इसीलिए तो लिया जाता है।  इस तरह से देश खुशहाल भी नजर आएगा।  तो क्यों न लोग अपने बच्चों से कहेंगे बेटा कुछ मत कर बस मुफ्तखोर बन जा।  तेरा कल्याण हो जायेगा।

देश का विकास शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास सिर्फ और सिर्फ जनसंख्या पर टिकी होती है।  भीड़ और भेड़ को बस एक अगुआई करने वाले की तलाश रहती है।  अनियंत्रित जनसंख्या के कारण आज चारों तरफ सिर्फ भीड़ ही भीड़ है।  संसाधन को एक सीमा तक ही बढ़ा सकते हैं तो क्यों न उपभोक्ता को ही सीमित किया जाए।  परिवार नियोजन के कार्यक्रम अब न तो किसी राजनेता के कार्यसूचि में होता है न ही वायदा सूचि में तो कब तक और कहॉं तक लोगों को मुफ्त की रेबरियॉं बॉंटते रहेंगे?  आम जनता को समझना होगा।  एक तरफ मेहनतकश शिक्षित समुदाय का काम के बोझ और अनेक प्रकार के चिंता, निराशा के कारण प्रजनन क्षमता कम होता जा रहा है ।  शादी की औरसत आयु बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ अशिक्षितों की संख्या लगातार बढ़ता जा रहा है।  बाल विवाह धड़ल्ले से हो रहा है।  आम आदमी मुफ्त में बिजली पानी के लिए पैदा नहीं हुआ है। उसे बेहतर सुविधा चाहिए।  मेहनत करने के लिए सभी तैयार हैं लेकिन उसे मौका देना होगा।  भाग्य बिधाताओं से विनम्र निवेदन है कि लोगों को मुफ्तखोर मत बनाइए बल्कि उनके लिए बेहतर अवसर प्रदान करने का उपाय किजिये।  हम भारीतीय शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत तो हैं ही साथ में मेहनती भी किसी से कम नहीं हैं।  आप हमें सपना मत दिखाईये बल्कि हमारे अपने सपनों को साकार करने में हमारी मदद किजिये।

Saturday, December 31, 2016

नववर्ष मंगलमय हो।

नया साल का आगमन हा रहा है।  पुराना साल को हमलोग बिदा करने वाले हैं।  सच्चाई यह है कि नया साल सबके लिए नया नहीं होता है और पुराना साल भी सबके लिए पुराना नहीं हो गया।  इसे अगर जरा विस्तार से सोचने और समझने का प्रयत्न करें तो मामला और गंभीर हो जाएगा।  जरा और गहराई में उतरें तो पायेंगे कि यहॉं का नजारा तो और विचित्र है।  हम नया साल और पुराना साल की बात क्यों इस शताब्दी यानि ईक्कीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी की बात करें।  सत्य तो यह है कि अभी इक्कीसवीं शताब्दी भी चल रहा है और साथ में बीसवीं,उन्नीसवीं, अठारहवीं, सतरहवी, सौलहवीं ईत्यादि शताब्दियॉं भी गतिमान है। कुछ लोग असहमत जरूर होंगे,वे खुद को सौलहवीं शताब्दी के नहीं मानेंगे लेकिन उनका न मानना ही एक प्रमाण है उनके बीसवीं या सौलहवीं शताब्दी के होने का।  असल में वर्तमान में जीवित मनुष्य मानसिक और बौद्धिक रूप में वर्तमान में जी नहीं रहे होते हैं।  उनका मानसिक एवं बौद्धिक स्तर हो सकता है दो—चार साल पीछे हो या दो—चार हजार साल पीछे भी हो सकता है।

आज के समय में करोड़ों लोग निरक्षर हैं।  क्या वे वास्तव में ईक्कीसवीं शताब्दी में हैं? साक्षरता कई शताब्दी पूर्व से ही चलन में है।  बीसवीं या उन्नीसवी सदी में आविष्कृत वस्तुएॅं अभी भी सबके पहुॅंच से दूर हैं।  ये वस्तुएॅं जिनके पहुॅंच से दूर है क्या वे वास्तव में ईक्कीसवीं सदी में हैं?  आज मंगलयान—चंद्रयान मी बात होनी चाहिए, तो हम पुष्पक विमान, रामायण, महाभारत में अपनी श्रेष्ठता खोजने या साबित करने के प्रयास में हैं।  दुनिया रोबोट से काम करनवाने के प्रयास में हैं तो हम समुद्र में सेतु की रहस्य समझाने में लगे हैं।  असल में हम लोगों को पुरानी बातें बता कर, सिखाकर एवं समझाकर उन्हें होशियार नहीं बना रहें हैं या बना सकते हैं, बल्कि हम उन्हें मजबूर कर रहें हैं पिछली शताब्दियों में जीने के लिए।  वर्तमान में जीने का प्रयास करना ही वास्तव में जीवन हैं।

साल नया उनके लिए होता है जो नये साल की उपलब्धियों को अपने आप में  समाहित कर सके।  समाज को अपने ओर से कुछ नया दे सके और समाज से नया लेने में भीव वे सक्षम हो।  मानव आबादी का एक बड़ा हिस्सा तो ऐसे लोगों का है, जो कुछ नया समाज को दने लायक नहीं है।  देना तो दूर की बात है वे समाज से नया लेने में सक्षम भी नहीं हैं।  सच मानिये एसे करोड़ों—अरबों लोगों के नया साल कभी नया नहीं होता है।  ये कई पीढ़ियों से एक ही साल एक ही सदी में जी रहें हैं।  समय का पहिया घूमता है इनके लिए सच नहीं है। इनके लिए समय भी स्थिर है, और मजे की बात —समय को इन्होंने स्वयं रोक रखा है।  एक ही साल और सदी में पीढ़ी दर पीढ़ी जीने में इन्हें मजा भी  आ रहा है। पुराने सदी के लोगें का शिकायत एक ​बढ़िया औजार था। आज भी हम इस औजार को और धारदार बनाने में जुटे हैं। सोशल मीडिया पर एक अच्छा हास्य प्राप्त हुआ—  कभी कोई गलती हो जाये तो घबराने की जरूरत नहीं है।  बस शांत मन से अकेले में बैठकर विचार करें कि—— नाम किसका लगाना है यानि अपनी गलती के लिए जिम्मेदार किसको ठहराया जाये।  आज हमारा प्रयास यही रहता है।  किसी एक को ढूॅंढ़े अपनी असफलता के लिए जिम्मेवार।

प्रसिद्ध उद्योगपति श्री रतन टाटा के वक्तव्य है— मैं अपने निर्णय को कभी गलत नहीं मानता हूॅं, बल्कि अपने लिेये गये गलत निर्णय को सही करे दिखाता हूॅं।  मतलब हम जो कर रहें हैं, बेशक वर्तमान में उसमें लाभ नहीं हो रहा हो लेकिन हममें अपने में यह क्षमता विकसित करनी चाहिए कि ऐसी परिस्थितियों को हम भविष्य में लाभदायक स्थिति में ला सकें।  हम क्या हैं? यह महत्वपूर्ण नही हैं।  हम क्या बनने के लिए क्या कर रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है।   हम सबकुछ चाहते हैं पर करते कुछ नहीं, जब्कि हमें सबकुछ करना चाहिए एक चाहत के लिए। 

तो आईये नये और पुराने साल को भूलकर इस सदी में भी सफलता पूर्वक जीवन यापन करने का निर्णय लेकर शत—प्रतिशत यत्न करें।  इसी से अपना और मानव समाज का कल्याण होगा, यही मेरी मंगलकामना भी है।

Tuesday, December 13, 2016

काम अधिक बातें कम।

बंधुओं, मेरे विचार से लोगों के चार श्रेणियॉं — अशिक्षित, अल्पशिक्षित,अर्द्धशिक्षित एवं शिक्षित होते हैं। अशिक्षित श्रेणी से सब अवगत हैं। अल्पशिक्षि​त श्रेणी के लोग सिर्फ सा​श्रर हैं।  शिक्षि​त वे हैं जो शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से संपन्नता हासिल कर चुके हैं।  बॉंकी लोग अर्द्धशिक्षित श्रेणी के हैं।  जैसे—जैसे कोई समाज या देश प्रगति करता है, इस श्रेणी के लोगों की संख्या में वृद्धि होती जाती है।  यानि विकासशील देशें में अ​र्द्धशिक्षितों की संख्या अधिक होती है और विकसित देशों में शिक्षितों की संख्या अधिक होती है।  स्वाभाविक है गरीब एवं अविकसित देशों में अशिक्षितों एवं अल्पशिक्षितों की संख्या अधिक होगी।  


अर्द्धशिक्षित लोगों की ऐसी श्रेणी हैं जिसमें बेरोजगारों की संख्या सर्वाधिक है।  इस श्रेणी बेरोजगारों की श्रेणी कह सकते हैं।  भारत में भी अर्द्धशिक्षित बेरोजगार कम नहीं है।  हलांकि सरकार द्वारा इन्हें शिक्षित बेरोजगार कहा जाता है और कुछ राज्य सरकारें इन्हें शिक्षित बेरोजगारी भत्ता भी दे रही है।  यह कितनी हास्यास्पद बात है जो खुद को और जिसे सरकार शिक्षित मान रहे हैं, बेरोजगार हैं।  इन बेरोजगारों के अथाह ज्ञान होता है— इनके बेरोजगार रहने का, असफल होने का। ये सामाजिक, राजनैतिक मुद्दे पर लगातार कई घंटों, दिनों, महीनों, सालों और ताउर्म बहस कर सकते हैं।  असल में ये लोग बहस कर नहीं सकते बल्कि इन मुद्दों पर बहस करना ही इनका मुख्य कार्य होता है।  ये अपने अलावा हर किसी पर आरोप—प्रत्यारोप लगा सकते हैं।  राजनीति में इन्हें महारात हासिल होता है।  अगर अर्द्धशिक्षित श्रेणी के लोगों को कुछ करने के लिए कहा जाये तो ये काम नहीं करने के हजारों कारण गिना सकते हैं।

बंधुओं, असल में भारत जैसे विकासशील देश में हर क्षेत्र में अपार संभावनाएॅं है।  हर क्षेत्र में अभी भी गुणवत्ता का अभाव है।  चाहे वो छोटा काम या क्षेत्र हो सब जगह गुणवत्ता का अभाव है।  प्राथमिक विद्यालयों में ढंग का शिक्षक—शिक्षिकाएॅं नहीं हैं।  हजारों की संख्या में प्राथमिक विद्यालयों के शि​क्षक—शिक्षिकाएॅं ऐसी हैं, जिन्हें सप्ताह के सातों दिनों या वर्ष के 12 महीनों का नाम शुद्ध—शुद्ध लिखना नहीं आता है।  इसी तरह अन्य क्षेत्र है, चाहे वह स्वास्थ्य हो या अन्य कोई स्वरोजगार हो गुणवत्ता का अभाव है।  इसी वजह बहुराष्ट्रीय कंपनियॉं यहॉं लगातार फल—फूल रही है। 

बातें हम लगातार कर सकते हैं।  योजनाएॅं भी अच्छी बना सकते हैं।  लेकिन जब काम करने की बारी आती है तो हम काम को कल पर टाल देते हैं।  और कल फिर कल पर यह सिलसिला लगातार चलता रहता है।  अंतत: हम काम शुरू करने में ही असफल हो जाते हैं।  हम अर्द्धशिक्षितों में सबसे बड़ी कमी यही है।  अगर बातें करने के बजाय सिर्फ कोई काम  शुरू कर दें।  चाहे वह काम छोटा से छोटा ही क्यों नहीं हो हलांकि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता है और उस काम को अनवरत सही दिशा में प्रयास करते रहें तो उसकी काम या क्षेत्र में हमें अपार सफलता मिलेगी। इस तरह के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।  आज के बड़े—बड़े उद्योगपतियों के पास शुरूआत में कुछ भी नहीं था। 

Monday, December 12, 2016

अगर बड़ा बनना है तो सफलता का श्रेय दूसरों को और असफलता की जिम्मेदारी खुद लिजिये।

बंधुओं बड़ी—बड़ी प्रतियोगिताओं में जब कोई सर्वश्रेष्ठ आता है तो उनसे पूछा जाता है कि आप अपने सफलता का श्रेय किसे देंगे? वे लोगी बड़ी शालीनता एवं गर्व से ईश्वर, माता—पिता, गुरू/कोच, परिवार एवं दोस्तों और अंत में अपने अभ्यास को अपनी उपलब्धि का श्रेय देते हैं।  सफल उद्योगपतियों से अगर यह सबाल पूछा जाये तो वे अपने टीम एवं कामगार का नाम लेगे। इसके विपरीत एक साधारण सा असफल प्रतियोगी से यही सबाल पूछा जाये कि उनके असफलता के लिए जिम्मेदार कौन है? तो वे अपने अलावे सभी का नाम बता देंगे,परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होना, परिवार का शिक्षित नहीं होना, परिवार का माहौल ठीक नहीं होना, परिस्थिति अनुकूल नहीं होना, प्रतियोगिता निष्पक्ष नहीं होना, सरकार की गलत नीति,समय अनुकूल नहीं होना, अच्छे गुरू/कोच का अभाव होना इत्यादि इत्यादि। इस तरह उनकी असफलता के लिए जिम्मेदावर लोगों एवं परिस्थितियों कल सूचि लंबी होती चली जाएगी पर उसमें स्वयं उनका नाम नहीं होगा। अगर उनके असफल होने का एक कारण हो तो वे उसका निदान कर अगली बार फिर से प्रतियोगिता में सफल हो सकते हैं, लेकिन अगर कारण हजार हों तो बेचारा किसका—किसका निदान करेंगे। इससे बेहतर उनके लिए होता है कि वे प्रतियोगिता से ही हट जाते हैं और जीवनभर आरोप—प्रत्यारोप के खेल में पारंगता हासिल करते रहते हैं। 

इस देश का दुर्भाग्य ही है कि मजदूर और समान्य लोग जितनी राजनीति जानते हैं, उतनी तो अन्य देशों के राजनेता भी नहीं जानते।  आप रेल के सामन्य कोचों से लेकर चाय की दुकान पर अव्वल दर्जे का राजनैतिक बहस सुन सकते हैं।   आरोप—प्रत्यारोप में सब माहिर है। स्वयं दिनभर कुछ करेंगे नहीं लेकिन अपनी विपन्नता का जिम्मेदारी सीधे प्रधानमंत्री पर ​थोपेंगे।  छात्र अध्ययन के अलावा सब कुछ करते दिखेंगे, लेकिन अपनी बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार आरक्षण का होना या पर्याप्त आरक्षण का नहीं होना को मानेंगे।

भ्रष्टाचार में लिप्त व्यापारी, सरकारी कर्मचारी को भ्रष्ट कहेंगे। और ये दोनों मिलकर राजनेताओं को भ्रष्ट कहेंगे। आम जनता खुद को पाक साफ लेकिन इन तीनों को भ्रष्ट कहेंगे। जिम्मेदवारी से भागना ही अवनति का मूल कारण है।  कभी—कभी हमें खुद के अंदर झॉंकना चाहिए।

अगर हम अपनी असफलताओं की जिम्मेदारी लेते हैं तो हमें अपनी गलतियों को ढूॅंढ़ने का मौका मिलेगा और उन गलतियों से भविष्य के​ लिए सीख भी मिलेगी।  हम उन गलतियों को नहीं करने का उपाय तलाश करेंगे। और पूरी तैयारी के साथ भविष्य में सफलता के लिए प्रयास करेंगे। और सफल होगें।

Sunday, December 11, 2016

जीवन में सफल होने के लिए लगातार बौद्धिक विकास करते रहें।


बंधुओं जब हम शारीरिक रूप से बीमार या कमजोर होते हैं, तो क्या करते हैं?  सबसे पहले किसी अच्छे चिकित्सक से उपचार या सलाह लेते हैं।  तत्पश्चात उनके द्वारा सुझाये गये दवाईयां एवं भोजन का नियमित एवं समय सारणी अनुसार सेवन करते हैं।  कुछ दिनों में हम स्वास्थ्य को फिर से प्राप्त करते हैं।  चिकित्सक द्वारा सुझाये गये दवाईयॉं में कुछ दवाईयॉं रोग ठीक करने के लिए और कुछ दवाईयॉं शारीरिक कमजोरी को दूर करने के लिए होती है, जैसे विटामिंस, केल्सीयम, मिनरल्स इत्यादि।  


जिस प्रकार कमजोर शरीर से हम ज्यादा श्रम नहीं कर सकते हैं।  ठीक उसी प्रकार कमजारे बुद्धि से हम मनोवांछित सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं।  अविकसित यानि पिछड़ा समाज अभी भी मानसिक और बौद्धिक रूप से कमजोर है।  एसे समाज के शिक्षित व्यक्ति् भी बौद्धिक रूप से कमजोर हैं।  ध्यान दें, शिक्षित व्यक्ति बौद्धिक रूप से भी विकसित हो यह जरूरी नहीं हैं।  अशिक्षित व्यक्ति या अल्प शिक्षित व्यक्ति भी बौद्धिक रूप से विकसित हो सकते हैं।

संसार में कुछ सफल व्यक्ति मामूली स्कूली शिक्षा ग्रहण किये थे पर वे बौद्धिक रूप से काफी विकसित थे।  बहुत हद तक इसमें हमारी शिक्षा नीति का भी दोष है।  सिर्फ पढ़ने—लिखने से अक्षरों और हमारे बीच परिचय पैदा होता है, ज्ञान नहीं।  जो व्यक्ति अल्पविकसित समाज के शिक्षित हैं, उन्हें यह भ्रम रहता है वकि वे बौद्धिक रूप से विकसित हो चुके हैं।  अब उन्हें कुछ सीखने और जानने की आवश्यकता नहीं है। यही सेच उन्हें जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने नहीं देती है।

दोस्तों अगर जीवन के किसी भी क्षेत्र में तरक्की करना है तो लगातार सीखने की आदत डालनी पड़ेगी।  इसके लिए अपनी आय का एक हिस्सा तय कर लिजिये और उस हिस्से को सिर्फ और सिर्फ सीखने पर खर्च किजिये।  जिस प्रकार भोजन समयानुसार एवं लगातार जीवन पर्यन्त करते रहते हैं उसी प्रकार दिन का एक समय निश्चित कर लिजिये सीखने के लिए। 

अब सवाल उठता है कि सीखा किया जाय? तो इसका सीधा सा जबाव है कि यदि आप किसी रोजगार या व्यापार में है तो अपने रोजगार या व्यापार से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन करें, इससे संबंधित सभाएं—सेमिनारों में जायें और इससे संबंधित यदि बाजार में कोई सी0डी0/डी0वी0डी0 उपलब्ध हों तो उसे सुने।  इसमें जो भी खर्च हो बिना सोचे समझे कर सकते हैं।  वो बरबाद नहीं जायेगा। कई गुणा वापस आपको देगा।  आपकी तरक्की भी होगी।  आपको मान—सम्मान भी मिलेगा।  यदि आप बेरोजगार हैं तो सबसे पहले तो आप यह तय कर लेें कि आपको करना क्या है? यानि आप अपना लक्ष्य निर्धारित कर लें।  फिर अपने लक्ष्य से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन करें, सभा—सेमिनार या कोचिंग में जायें। ज्यादातर शिक्षित बेरोजगार इसीलिए हैं कि वे शिक्षा तो ग्रहण कर लेते हैं लेकिन उसके बाद घर बैठ जाते हैं।  आजकल प्रतियोगिता का जमाना है।  आपको हर क्षेत्र में प्रतियोगिता करना है । चाहे सरकारी नौकरी हो या व्यवसाय हो ।  अगर आप प्रतियोगिता करने में सक्षम नहीं है तो आप पीछे रह जायेंगे।  इसीलिए प्रतियोगिता करने लायक बनें।   

और प्रतिदिन कम से कम तीस मिनट मोटिवेशन की कोई किताव पढ़ें या सी0डी0/ डी0वी0 डी0 सुनें।  साल में कम से कम दो बार तो जरूर किसी मोटिवेशनल स्पीकर के प्रोग्राम में जायें।

Friday, December 9, 2016

युवा जोश दिखायें।

युवा जोश अथवा शक्ति का खान होता है।  असंभव सा दीखनेवाला कार्य युवाओं के जोश में पलभर में सम्पादित हो जाता है।  दुनिया के महान से महान कार्य युवाओं द्वारा ही किया गया है।  सच तो यह है कि युवाओं के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।  हिमालय की उच्चतम चोटी पर ध्वज फहराना हो समुद्री मार्ग द्वारा विश्व भ्रमण करना हो, बर्फीले ध्रुवों पर पहुॅंचना हो, पहाड़ जंगल साफ कर रास्ता बनाना हो जैसे अनेकानेक कार्य करने में युवा अपना कदम वापस नहीं मोड़ता है।

सदियों से परतंत्र अनेक देशें के युवाओं में जब स्वाभिमान जागा, परतंत्रता के प्रति नफरत हुई।  वे अपने देश को स्वतंत्र कराने हेतु प्रण किये और अंतिम सांस तक लड़ते रहे।  आखिर कामयावी हासिल कर ही दम लिये।  सच तो यह है कि परिवार समाज एवं राष्ट्र की सारी जिम्मेदारियॉं युवाओं पर ही होता है।  युवा अगर संकल्प कर ले तो दुनिया का कोई भी काम उनके लिए असंभव नहीं होगा।  महाभारत में एक कथा है—निषाद राजकुमार एकलव्य की ।  गुरू द्रोणाचार्य कौरव—पॉंडव सहित कुछ अन्य राजकुमारों को शिक्षा देते थे।  यह देख एकलव्य को भी लालशा हुई कि हम भी गुरू द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों के भांति शस्त्र विद्या सीखें।  वे नम्रतापूर्वक गुरू द्रोणाचार्य से अपनी इच्छा जाहिर किये।  द्रोणाचार्य एकलव्य के परिचय लेने के पश्चात दो टूक शब्दों में बोले— मैं नीच जाति को शिक्षा नहीं दे सकता हॅूं।  फिर भी एकलव्य निराश नहीं हुए।  कहा जाता है कि गुरू द्रोणाचार्य की प्रतिमा स्थापित कर उनके समक्ष ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे।  आगे चलकर वे उस समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्घर हो गये।  अत: हम कह सकत हैं कि अगर हममें जोश है कुछ कर दिखाने की तमन्ना है तो विपरीत परिस्थितियॉं कदापि बाधक नहीं बन सकती।  बाधाओं के भय से अगर हम कार्य की शुरूआत नहीं करते हैं तो यह हमारी कायरता है।  निर्वलता का प्रमाण हैं  बाधाएॅं उन कांटों की की भांति है जिसके बिना पुष्प की अपेक्षा सर्वस्था हास्यास्पद होगी।  अत: हमें बाधॉंए रूपी कॉटों को पार कर पुष्प समान सुगंधित एवं सुंदर जीवन प्रापत करना है।

हममें अपार शक्ति है। जरूरत हे, उसका सदुपयोग करने का।  जब हम अपनी शक्ति का सदुपयोग करेंगे तो हमारी शक्ति दिनों—दिन बढ़ती ही चली जायेगी।  हमारा जोश, उत्साह, उत्कंठा बढ़ता ही चला जायेगा।  हम एक—से—एक लोकोपकारी कार्य करते चलेगें, एक समय ऐसा आयेगा कि अगर हम पीछे मुड़कर अपनी ही कार्यो का विश्लेषण करेंगे तो विश्वास नहीं होगा कि इतना कार्य करने की क्षमता हममें थी।  लेकिन इसके विपरीत अगर हम अपने शक्ति का दुरूपयोग करने लगे तो हमारी शक्ति क्षीण्ण होती जायेगी।  हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी।  हमारी क्षमता सीमित हो जायेगी।  हम सिर्फ एक कार पायेगे, दूसरों को कष्ट पहुॅंचना, चाहे वह जिस तरीके से हो अत: हमारी अंत अत्यन्त दयनीय तरीके से होगी।  अत: हमें अपनी शक्ति के दुरूपयोग करने से बचना चाहिए।

आज सम्पूर्ण विश्व में हलचल है, कोलाहल है, अशांति है, अराजकता है, आखिर इसका कारण क्या है?  ऐसा क्यों हो रहा है?  इसका मूल कारण है युवा वर्ग का अपने कर्तव्यों से विमुख होना।  युवावस्ािा को अपनी जिंदगी से अलग मानना।  इस अवस्था का काम सिर्फ खाना—पीना और मौजमस्ती करना ही समझना।  धर्म, साहित्य एवं सेवा से युवा वर्ग जिस प्रकार दूर होता जा रहा है।  इससे भवष्य में और बड़ा संकट उत्पन्न हो सकता हैै।  धर्म में जो विसंगतियॉं उत्पन्न हो रही है या हुई है, पाखंड, अंधविश्वास, अंधभक्ति, कुरीतियॉं का प्रचलन हुआ है या हो रहा है इसका कारण क्या है?  युवा सोचते हैं या आजकल मानते हैं धर्म,पूजा—पाठ या सत्संग उनके हिस्से की चीज नहीं है।एक तो वे पढ़े लिखे समझदार लोग हैं, दूसरा यह काम बूढ़े—बुजर्गों का है।  ऐसे में धर्म का संशोधन कैसे होगा?  धर्म में जब तक आधुनिक समस्या एवं तर्क का समावेश नहीं होगा तब तक समग्र मानव समुदाय का विकास संभव
नहीं हैं।  जैसे हमारी धार्मिक मानरूता है कि अंतकाल में पुत्र द्वारा ही मुखांग्नि देने से ही मोक्ष अथवा स्वर्ग की प्राप्ति हो सकता है।  इसी कारण लोग पुत्र की चाह में दर्जनों पुत्रियॉं उत्पन्न कर देते हैं।  इस प्रकार के अनेक मानयताएॅं है जो सदियों पूर्व उस समय के आवश्यकता अनुरूप या अन्य किसी प्रयोजन के फलस्वरूप प्रचलित हुई।  दुर्भाग्य आज तक प्रचलन में हैं, कारण युवा इससे सतर्क नहीं हुए। 

आत्मशुद्धि के लिए पूजा—पाठ एवं संस्कार यज्ञ अतिआवश्यक है।  इसका यह मतलब कतई नही है कि हम धर्म के नाम पर मूढ़ मान्यताओं को ढोते रहे।  धर्म में सिर्फ अंधविश्वाास, अंधभक्ति, कुप्रथाओं, मूढ़—मान्यताओं का समावेश नहीं है, वरण उनमें सब कुछ है जिसकी हम अपेक्षा करते हैं।  युवाओं को धर्म के महत्व को समझने की  आवश्यकता है, जिससे समाज में व्याप्त व्यभिचार, भ्रष्टाचार का नाश हो सके और धर्म का परिष्कृत रूप भी सामने अस सके।

क्रांति और साहित्य में चोली दामन का संबंध हैं  साहित्य के बिना किसी भी प्रकार की क्रांति की कल्पना करना निरर्थक है।  समाज का वास्तविक नेतृत्व साहित्य के द्वारा ही होता है ।  भोजन से शारीरिक विकास होता है पर साहितय से बौद्धिक विाकस होता है।  आज जिस प्रकार का साहित्य रचा जा रहा है, खासकर युवा वर्ग द्वारा जिस प्रकार का साहित्य पढ़ा जा रहा है, उससे बौद्धिक विकास के बजाय बौद्धिक ह्रास ही होता है।  धन के लोभ में सेक्स, हिंसा, अत्याचार, मराकाट जैसे विषयों पर रचा गया आकर्षक, अश्लील साहित्य युवाओं को पथभ्रष्ट करने के अलावा, स्वार्थी, कामुक, धन लोलुप, कायर, कामचोर भी उपहार स्वरूप बनाता है।  अच्छे साहित्य के रचचिता सड़क पर मूंगफली बेचते नजर आते हैं, अश्लील साहित्य के निर्माता महलों में ऐश करते हैं।  आज विश्व के अधिकांश देश भ्रष्टाचार के आगोश में डूबा है। 

भारत की स्थिति किसी से छिपा नही है।  युवा वर्ग में नेतृत्व करने की क्षमता नहीं हैं  आखि​र क्यों?  युवावर्ग अपने को समाज के देश के क्रिया कलापों से दूर रखता है।  अत: समाज, देश के उज्जवल भविष्य के लिए युवाओं में सत्साहित्य का प्रचार—प्रसार अत्यन्तावश्यक है।  अगर समय रहते हुए इस ओर ध्यान नहीं दिया गया 'अश्लील साहित्य के प्रकाशन,वितरण एवं प्रचलन पर रोक नहीं लगाया गया, कामशास्त्र के नाम पर कामात्तेजक साहित्य, विषयों पर संगोष्ठी सभाओं या अन्य माध्यमों पर रोक नहीं लगाया गया और बच्चे युवाओं के लिए समान्य पाठ्यक्रम के साथ—साथ अच्छे साहित्य के पठन—पाठन की व्यवस्था नहीं किया गया तो एक समय ऐसा आयेगा कि मानव एवं पशु के मध्य अंतर समाप्त हो जायेगा।  मानवता का लोप हो जायेगा।  आधुनिक सभ्यता जो पश्चिमी सभ्यता का प्रतिरूप है, के नाम पर जो नग्नता एवं उच्छंखलता का प्रचलन आज हमारे समाज में बढ़ रहा है।  वर्तान के लिए चिंतनीय विषय एवं भविष्य के लिए यह उत्यन्त खतरनाक हो सकता है।

सेवा वह कड़ी है जो एक मानव को दूसरे मानव , जीव—जंतु से जोड़ती है।  सेवा के अभाव में समाज तो क्या!परिवार भी सुचारू रूप से नहीं चल सकता है।  सेवा भावना के अभाव में पति—पत्नी के बीच, पिता—पुत्र, मॉं—बेटी, सास—बहु जैसे अटूट एवं अत्यंत निकटम रिश्ते में भी कटुता आ जाती है।  आज के युवाओं में सेवा भावना का अत्यंन्त अभाव है।  फलस्वरूप परविार, समाज एवं देश में मानवता का ह्रास हो रहा है।  सेवा भावना के अभाव के कारण ही आज के राजनेता देश सेवक के बजाये देशद्रोही जैसा कार्य कर रहे हैं।  वे अपनी मान—मर्यादा देश की चिंता किये बगैर निजि स्वार्थ के खातिर कुछ भ करने को तैयार जो जाते हैं। 

अनेक विकसित देशें में बृद्धाश्रम का प्रचलन बहुत पहले से है।  वृद्धाश्रम का संचालन सरकार द्वारा होता है।  वहॉं के वृद्धों के देखीााल का जिम्मा परिवार के बजाय सरकार पर होता है।  सीधे तौर पर देखने पर यह एक अच्छी परंपरा या नियम या चलन दिख्ता है।  पर गहराई से सोचने पर यह एक चिंतनीय विषय मालूम पड़ता है।  आजकल भारत में भी वृद्धाश्रम की प्रथा अपनी प्रारंभिक दौर से गुजर रही हैं  आगे क्या होता है? भगवान जाने!  फिलहाल यह काफी चिंतनीय विषय है, समय रहते ही युवाअेां को सॅंभलना होगा। उन्हें आगे आना होगा। 
संजय कुमार निषाद

Thursday, December 8, 2016

अनियंतित्रत जनसंख्या: एक आनुवंशिक रोग।

आज के विकासशील एवं अविकसित देश एक अजीब महामारी से जूझ रहा है।  वह महामारी है जनसंख्या ​बृद्धि।  अंतराष्ट्रीय संस्थाओं, स्वयंसेवी संगठनों, विकसित देशें की सरकारों एवं स्वदेशी सरकार एवं संगठनों के कल्याणकारी कार्यक्रम इन दशें में बेअसरी साबित होती है।  बड़े से बड़े बजट की योजनाएॅं भी रेगिसतान की वारिश की तरह उड़ जाती है।  इसका कारण वहॉं की अनियंत्रित जनसंख्या ही है। 

भारत एक विकाससशील देश है।  सतही तौर पर यह दिनों दिन प्रगति कर रही है, आम आदमी के रहन—सहन में फर्क हो न हो कुछ लोगों के रहन—सहन में परिवर्तन जरूर नजर आ रहा है।  अमीरी बढ़ रही है । गरीबों की सरकार बनती है, गरीबी कायम है।  गरीबी मिटाने वाली सरकार भला अमीरों को क्यों मिटायेगी लोग भूखे मर रहे हैं।  भला हो उस वैज्ञानिकों को जिन्होंने आलीशान बंगलों को सड़नरहित बनाते है, वर्णा महलें सड़ते एवं बगल के सड़कों पर बेघार लोग मरते।  प्रकृति को अगर खुद का नयायालय नहीं होता तो इस सरकारी न्यायालय द्वारा आदेश जारी होता—'भूकंप, आॅंधी—तूफान, बाढ़,चक्रवात, माहमारी इत्यादि आपदाएॅं केवल गरीबों के लिए एवं गरीब क्षेत्र में  ही हा।  अमीरों को इससे मुक्त रखा जाय।  आखिर सब कुछ जिसे असंभव कहा जाता है संभव गरीब देश में होता है।  किसान अपने फसल से लगे खेतों में खुद आग लगाता है ताकि खेत साफ हो और अगला फसल उसमें बोया जा सके।  आखिर क्या करेंगे ईख उगाकर चीनी मिल बंद है खपत के लायक चीनी आयात कर ली जाती है।  कीड़े के प्रकोप से फसले चौपट हो जाती है, किसान कर्ज से मुक्ति पाने हेतु कीटनाशक दवाईयों का प्रयोग खुद को नाश करने में लगा देते हैं, लेकिन करोड़ों—अरबों के हेराफेरी, घोटाला करने वाले लोग शान से अपने को जनता का सेवक एवं निर्दोष कहते नहीं अघाते। उनके पूर्खे भी कभी नहीं आत्महत्या की थी।  हमारे धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को पान नहीं महापाप कहा गया है।  इसलिए आत्महत्या करनेवाले वे कर्जदार किसान महापापी है, उन्हें कर्ज चूकाने का दूसरा उपाया ढ़ूढना चाहिए। 

भारत मे सब कुछ बिकाउ है— इज्जत, ईमान, इंसानियत।  गरीब अगर बहू—बेटियों की ईज्जत नीलाम करे तो वे मालामाल हो जायेंगे। पर यहॉं भी भेद होता है गरीबों की ईज्जत बिकती नहीं गिरबी रखी जाती है।  आखिर क्या करे गरीब और क्या करे गरीब देश?  गरीबी तो उन्हें पूर्वजों से सौगात के रूप में मिली है।  गरीबी मिटाना यानि दों शम की रोटी जुटाना घर बनाना, पहनने की कपड़े का इंतजाम करना गरीबों का काम नहीं है। वह सरकार का काम है।  उनका काम तो सिर्फ बच्चा पैदा करना है।  क्योंकि वह गरीब है इसलिए वह सारी जिम्मेदारी से मुक्त है।  वे बच्चा पैदा करेंगे, बाकी काम सरकार करे या न करें उनकी इच्छा।  उनके रहने के घर, पहनने के लिए कपड़ा, साने के​ लिए रोटी, पढ़ने के लिए विद्यालय सब के सब सरकार के उपर है।  अगर सरकार पूरा नहीं करती तो अमीर लोग पूरा करें।  जिनके पास करोड़ों रूपये है उन्हें एक बच्चे हैं जो विदेश में पढ़ते हैं।  जिनके पास एक कोड़ी भी नहीं है, उन्हें एक दर्जन बच्चे हैं। जो करोड़पति के कारखने में काम करते हैं, फिर भी करोड़पति को लोग गाली देते हैं।  अमीरों के बच्चे तो विदेश में पढ़ते हैं गरीबों के बच्चे को गॅंवई स्कूल भी नसीब नहीं होता।  आखिर दोष किसका है?  क्या अमीर बनना,समझदार बनना पाप है?

गरीब अगर एक बच्चे पैदा करेंगे तो उसके लिए सब चीजों का इंजाम सरलता से किया जा सकता है।  चाहे तो इंतजाम खुद उसके माता—पिता करे या सरकार।  तब गरीबी अपने आप मिट जाएगी।  अगर एक दम्पति को एक बच्चा रहेगा तो उनके खाने—पीने रहने पहनने, पढ़ने का इंतजाम वे मजदूरी करके आसनी से कर सकता है।  पढ़—लिखकर अगर वह बच्चा योग्य बन जायेगा तो इसका भविष्य उज्ज्वल हो जायेगा।  सरकार के अनेक कल्याणकारी योजनाओं का वह लाभ ले सकेगा।  आरक्षण का लाभ पाकर सरकारी सेवा में जा सकेगा या योग्यता के बल निजि कंपनियों में नौकररी कर सकेगा या खुद का लघु उद्योग या कम पूॅंजीवाला धंधा, व्यापार आसानी एवं समझदारी से कर सकेगा।

गरीबों के लिए सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह गरीबी से निपटना नहीं चाहता है।  एक गरीब जब एक दर्जन बच्चे पैदा करता है। तब वह यह नहीं सोचता है कि उनके लाल—पाल7न भी उसे ही करना पड़ेगा।  बच्चे को बचपन में ही पेट भरने के लिए तरह—तरह के कष्टप्रद काम करना पड़ता है।  अल्पव्यस्क आयु में ही उसकी शादी हो जाती है, और उसे भी होश संभालते—संभलते सात—आठ बच्चे पैदा हो जाता है।  यह सिलसिला पीढ़ी गरीबों में उपस्थ्ति रहता है।  अगर गरीब इस रोग का इलाज कर ले तो वह दो—चार साल में ही आत्म निर्भर हो जायेगा। 

सभी कमजोर समाज में जनसंख्या बृद्धि एक आनवंशिक रोग के तरह है।  समाज के विकास के लिए इस रोग से छुटकारा पाना अत्यन्त आवश्यक है।  देश के प्रत्येक कोने के कमजोर समाजों की स्थिति लगभग एक जैसी ही है।  दिेनों—दिन उनकी स्थिति बिगड़ती जा रही है।  जिस रफ्तार से कमजोर समाजों की जनसंख्या बढ़ रही है उसी रफ्तार से उनकी पतन भी हो रहा है।

अनियंत्रित जनसंख्या के कारण ही मानव को नीच से नीच कुकर्म करना पड़ताह ै।  इतिहास गवाह जिस समाज की जनसंख्या कीड़े—मकोड़े के तरह बढ़ती गयाी उकसा पतन बहुत कम समय में हो गया।  राजा—महाराजा प्राया: उसी जाति का बनते आ रहा है या अब शासनाध्यक्ष जो कम जनसंख्या में यानि जिसकी जनसंखया नियंत्रित है।

प्र​कृति पर अगर नजर डाले तो निम्न श्रेणी के कीड़—मकोड़े या जातियों की ही जनसंख्या अनियंत्रित रहती है।  अत्यधिक बच्चा पैदा करने से शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक तीनों प्रकार का पतन हो जाता है।

भारत में आज कई ऐसे समाज है जिनकी आबादी करोड़ों में है, लेकिन एक भी आई0ए0एस0, आई0 पी0 एस0 अधिकारी उस समाज से नहीं है।  एक प्रकार ऐसे समाज का बौद्धिक पतन हो गया है।  जो अनियंत्रित जनसंख्या के कारण ही हुआ है।

अत: कमजोर, अल्पविकसित समाज के शुभचिंतकों, सामाजिक कार्यकत्ताओं, सामाजिक संगठनों और राजनेताओं से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे जनसंख्या को नियंत्रित करने हेतु कदम बढ़ायें।  पत्र—पत्रिकाओं में नियमित रूप से इस पर विचार दें।  सिर्फ जयंतियॉं मनाने से  सभा सम्मेलन कर सामाजिक एकता का आह्वान करने से समाज का हित कभी नहीं होगा। जब तक जनसंख्या नियंत्रित नहीं होगी तबतक समाज अशिक्षित रहेगा।  शिक्षा के बिना समाज का विकास असंभव है।
संजय कुमार निषाद 

Wednesday, December 7, 2016

आरक्षण से आगे।

निषाद समाज के समाजसेवक, राजनेता एवं समाजिक संघों, संगठनों द्वारा समाज को अनुसूचित जाति/जनजाति का आरक्षण का लाभ देने हेतु सरकार से लगातार मांग किया जा रहा है।  राजनैतिक दलों द्वारा समय—समय पर खासकर चुनाव के समय इस मांग की समर्थन किया जाता रहा है, पर केन्द्र सरकार द्वारा लगातार इसे अस्वीकार किया जा रहा है या टाला जा रहा है। समाज के ज्यादातर बुद्धिजीवियों द्वारा भी इस तरह की मांग को जायज ठहराया जा रहा है। आज के समय में आरक्षण की मांग तो लगभग सभी जातियां द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से की जा रही है।

आरक्षण कोई नया हथियार नहीं हैं, असल में आरक्षण का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता। जरा ध्यान से सोचिये पहले आरक्षण की व्यवस्था हुई या जातिव्यवस्था। निश्चय ही पहले कुछ काम को कुछ लोगों के लिए आरक्षित की गई, तदुपरांप एक प्रकार के काम करनेवालें लोगों के एक समुह को एक खास नाम से पुकारा जाने लगा होगा, जिसे कलांतर में जाति नाम दिया गया ।  मुझे ऐसा लगता है कि जातिव्यवस्था बाद में शुरू हुइ है, इसके पहले आरक्षण ही था। इसलिए फिर से आरक्षण की मांग करना अनुचित नहीं है।

समाज में आरक्षण को हटाने के लिए आरक्षण लाना जरूरी है।


इसे ठीक से समझें— जिन लोगों को या जातियों को या समूहो को पहले से आरक्षण है जैसे मंदिर में पूजा—पाठ करने का आरक्षण, देश पर राज करने का आरक्षण, युद्ध करने का आरक्षण, व्यपार करने का आरक्षण,काश्तकारी करने को आरक्षण, मवेशी पालने का आरक्षण, मछली पकड़ने का आरक्षण, नाव चलाने का आरक्षण, जूते बनाने का आरक्षण, गंदगी साफ करने का आरक्षण  इत्यादि इस तरह के हजारों काम है जिसे करने का आरक्षण मानव सभ्यता के शुरूआत से है। ये आरक्षण की पुरानी व्यवस्था है जो बहुत मजबूत भी है। इसीलिए आरक्षण की नये व्यवस्था की आवश्यकता है जो शत—प्रतिशत तो नहीं पर कुछ अंश तक पुरानी व्यवस्था में सेंध मार सके और लोग अपने पुश्तैनी काम—धंधा को छोड़कर नये काम—धंधा शुरू कर सके, बस और कुछ नहीं ।  यानि जिनको पहले से आरक्षण है, उसके काम में कुछ नये लोगों को शामिल करने भर है।  लेकिन यह नई व्यस्था भी लोकतंत्र में पुरानी सभी आरक्षित काम में नये लोगों का प्रवेश कुछ अंश तक ही सही की गारंटी नहीें देता।  जैसे मछली पकड़नेवाले को मंदिर में पूजा—पाठ कराने के लिए आरक्षण लोकतंत्र में भी कोई नहीं दिला सकता। अगर इस तरह के आरक्षण व्यवस्था कर भी दिया जाये तो सफल नहीं होगा।  यानि पूजा—पाठ करने—कराने वालों के लिए अभी भी शत—प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। इस तरह के कई काम है जहॉं आरक्षण की पुरानी व्यवस्था ही लागू है वहॉं नई आरक्षण की कोई गुंजाईश नहीं है।

मैं यह तो नहीं कह सकता कि आजादी के बाद मुख्यधारा के दूर पड़े लोगों के लिए आरक्षण की अवधारणा ही गलत थी, क्योंकि उस समय इससे अच्छा और कोई तरीका नहीं था। लेकिन आज बंचित और पिछड़े समाज के लिए आरक्षण ही काफी नहीं है।  सिर्फ इसी से समाज सबल नहीं होगा।  क्योंकि आरक्षण सभी क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता, लागू करना संभव नहीं है, लागू करने से भी बहुत ज्यादा लाभ नहीं होगा।  अगर समाज या जातियों को विकास करना है तो आरक्षण से भी आगे की सोचना होगा। 

अगर वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से लाभ होता जिन जातियों, या समाज को अनुसूचित जाति/जनजाति के रूप आरक्षण को लाभ दिया गया है, वे सभी जातियों के सभी सदस्य सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से सबल और सक्षम होती। लेकिन ऐसा नहीं है।  हॉं, पुरानी आरक्षण व्यवस्था कारगार जरूर थी और आज भी कारगार है। बिना किसी दबाव के पुजारी का बेटा पुजारी बन जाता है और मछुआ का बेटा मछुआ।

अब समय है चिंतन करने का कि बिना आरक्षण के सभी जातियों का विकास कैसे हो? इसका उपाय ढूंढना होगा, क्योंकि वर्तमान आरक्षण नीति इतना सक्षम नहीं है कि इससे सभी पिछड़ी जातियों का विकास हो सके।  इसलिए जरा संभल के आरक्षण के लिए लड़ने वालों की अगुआई करने वाले तो आरक्षण का लाभ लेकर विकास कर लेगें, लेकिन उनके पीछे के समूह की स्थिति जस की तस रहेगी। शिक्षा एकमात्र विकल्प है विकास का । शिक्षित बनें, फिर आरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी। अन्यथा यह सिलसिला चलता रहा है, चलता रहेगा———कभी तू आगे, मै पीछे। कभी मैं आगे, तू पीछे।  साथ चलना है तो आरक्षण नहीं सक्षमता चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि मेरे विचार से सभी सहमत हो, फिर भी इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन के लिए आप सब से अनुरोध है।
संजय कुमार निषाद

अवसर को कभी नहीं गॅंवाओ।

अवसर इंसान को बहुत मुश्किल से मिलता है।  बाधाएॅं असीमित है एवं अवसर सीमित है। सफल होने के लिए अवसर के महत्व को समझना इसलिए आवश्यक है।  आजकल उच्च श्रेणी के प्रतियोगिताओं के लिए सीमित अवसर होते हैं।  फलत: सफलता उन्हीें के हाथ लगती है जो कठिन परिश्रम करके सीमित समय में अपनी अध्ययन पूरा करता है।  हमारा लक्ष्य जितना उॅंचा होगा हमें समय का महत्व उतना ही अधिक देना होगा।  अगर हम ​कठिन परिश्रम करके भी उचित अवसर का अनदेखा करते हैं तो हमें बार—बार निराशा का मुॅंह देखना पड़ेगा।

चुनाव भी एक महत्वपूर्ण अवसर है, जो जनता को अपनी शक्ति एवं बुद्धि—विवेक को परखने का अवसर देती है।  चुनाव में देश एवं जनता का भविष्य टिका रहता है।  अक्सर देखा गया है कि कमजोर एवं पिछड़े समाज प्राय: महत्वपूर्ण अवसरों पर लापरवाही बरतते हैं।  चुनाव में भी उनका सोच नकारात्मक होता है।  वे मानते हैं कि उन्हें खुद कमाना एवं खाना है, सरकार या चुनाव से उनको कोई लेना देना नहीं है।  इसलिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इनको कोई स्थान नहीं दिया जाता है।  इनका वोट बिकाउ होता है।  चुनाव के समय इस समाज के व्यक्ति शराब पीकर अपना मत डालते हैं।  उनका मत अपने विवेकानुसार नहीं बल्कि चंद रूपये या शराब मुहैया कराने वाले व्यक्ति के अनुसार  होता है।  समाज के पिछड़ने का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है।  

अत: ऐसे समाज के भाई—बहनों से मेरा आत्मीय अनुुरोध है कि अवसर को कभी मत गॅंवाये।  चाहे वह चुनाव का अवसर हो या प्रतियोगिता परीक्षाओं का।  अपनी योग्यता का परिचय उचित अवसर पर देकर समाज में देश में अपना प्रतिष्ठा बढ़ायें।  आज आप अवसर को गॅंवाते है तो आपको बार—बार या जीवनभर पछताना पड़ेगा।
संजय कुमार निषाद

Sunday, November 6, 2016

दुख मे सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।

चुनाव के समय अक्सर एक बता उठती है कि राजनैतिक दल निषादों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं देती।  सिर्फ चुनाव में निषाद राजनेता, राजनैतिक पार्टी के कार्यालय में भीड़ लगाते हैं।  उनका न तो किसी पार्टी में वर्चस्व रहता है न अपने क्षेत्र में न ही अपने समाज का उचित समर्थन।  फिर राजनैतिक दल को कोसना कहॉ तक उचित है? जिस निषाद राजनेता को पार्टी अपना उम्मीदवार बनाती है उन्हें सिर्फ चुनाव तक ही अपनी जाति की याद रहती है, चिंता होती है, चुनाव जीतने के पश्चात या जब वे जातीय कोटे से मंत्री बन जाते हैं, तब उनको अपने समाज से कोई मतलब नहीं रहता ।  कुछ मामले में तो वे अपने समाज को लूटने का ही काम करते हैं, फलस्वरूप समाज में उनकी छवि बिगड़ती ही चली जाती है। पार्टी भी उन्हें नीचले दर्जे का नेता मानती है, क्योंकि उनके पास जन समर्थन का अभाव रहता है।  असलिए वे अगले चुनाव में टिकट गॅवा बैठते हैं या दूसरे के आशीर्वाद से टिकट पाते हैं। 

अगर राजनेता निषाद समाज का निषाद समाज के लिए निषाद समाज द्वारा समर्थित एवं समर्पित हो तो राजनैतिक पार्टी खुद उन्हें आमंत्रित करेगी।  अत: निषाद राजनेताओं को चाहिए कि चुनाव में ही नहीं , वे चुनाव के पहले या चुनाव के बाद अपनी जाति के हित के लिए कार्य करें, जाति को संगठित करें।  उनके समस्याओं का निदान करने का कोशिश करें।  समाज को लूटने, ठगने के बजाय सरकारी लाभ पहुॅचाने का प्रयास करें।  अगर निषाद जाति संगठित हो जायें तो जाति के नेताओं का जो जाति के लिए सर्वमान्य है एवं समर्पित है, उनको श्वत: पार्टी सम्मानित किया जायेगा।

निषाद जाति के समाजिक कार्यकत्ताओं को भी चाहिए कि ऐसे नेताओं का जो सिर्फ चुनाव के समय ही अपनी जाति की याद आती है, उनका समर्थन नहीं करें जो दुख में समाज की सहायता करते हैं उनकी ही मदद करें।  अगर निषाद राजनेता निषाद समाज के विकास के लिए कार्य करेंगे तो निश्चय ही वे सफल होगें, और समाज एवं देश में उनका सम्मान बढ़ेंगे।

Saturday, November 5, 2016

बहुत जोगी मठ उजाड़।

एक बार एक महर्षि के दो शिष्यों के बीच झगड़ा हो गया।  एक कहता कि मैं श्रेष्ठ हूॅ। दूसरा कहता था कि मैं श्रेष्ठ हूॅ।  विवाद गहराता गया।  अंतत: मामला महर्षि जी के पास पहुॅचा।  गुरूजी फैसला सुनाये — जो दूसरे को श्रेष्ठ समझे वही श्रेष्ठ है।  फिर क्या था आश्रम में फिर से शांति स्थापित हो गई।  वे दोनों आपस में बड़े प्यार और स्नेह करने लगे।  अत: परिवार समाज या संगठन में जब तक दूसरे के महत्व को न समझा जायेगा, प्रत्येक सदस्य को समुचित आदर नहीं मिलेगा तब तक उक्त जगह न तो शांति होगी न ही अपेक्षित विकास।  उच्च महत्वाकांक्षा ही मतभेद का कारण होती है।  आंतरिक मतभेद के कारण विशाल सेना को पराजय का मुॅह देखना पड़ता है।

निषाद समाज में सच्चे समाज सेवक की कमी है लेकिन तुच्छ मानसिकता वाले समाजसेवकों की संख्या अनगिनत है।  राष्टीयस्तर पर एक भी राजनेता या संगठन नहीं हैं, लेकिन गॉव मुहल्ले स्तर के हजारों संगठन है, जो सामाजिक एकता में सबसे बड़ी बाधक है।  प्रत्येक उपजाति—गौत्र, कुरी का अपना—अपना नेता है जो उपजाति का भेदभाव कर समाज को बॉटकर रखता है।  इसी छुटभैया नेता के कारण आज समाज की दुर्गति हो रही है।

निषाद समाज के प्रत्येक उपजातियों के नेताओं से, समाजिक कार्यकर्ताओं से मेरा विनम्र अनुरोध है कि आपसी भेदभाव भुलाकर एक राष्टीयस्तर का संगठन बनाये एवं उपजाति, गौत्र,कुरी का भेदभाव समाप्त करने हेतु पहल करें।  सामाजिक एकता के लिए हीन मानसिकता को त्यागना होगा, अन्यथा समाज का विकास असंभव है।
संजय कुमार निषाद

नाचने उठे तो घूॅघट कैसा?

बच्चे अभिभावकों की नजरों से छिपकर, धुम्रपान,मद्यपान करता है या जुआ खेलता है या अन्य किसी प्रकार के अनैतिक कार्य करता है।  समाज में यह परंपरा बन चुकी है कि जो अनैतिक कार्य है या समाज को अमान्य है उसे समाज के नजरों से बचाकर करना चाहिए।  कुछ स्वयंसेवी, समाजसेवक अपने जीवन का लक्ष्य जनसेवा बनाता है, लेकिन उसे समाज के, परिवार के सदस्यों के आलोचना का भी भय रहता है, कभी कभी तो वे आलोचना के डर से अपना कार्य स्थगित कर देता है या औरों के नजर बचाकर करता है।  यह कैसी बिडंबना है।  अगर हम किसी कार्य को अपना लक्ष्य बना लिया तो यह जरूरी नहीं कि लोग हमारा गुणगान करें हमारे कार्य का एवं हमारा स्वागत करें।  हम अगर मान—सम्मान के लिए किसी का सेवा करते हैं तो यह हमारा हीन मानसिकता की पहचान होगी।  प्रतिष्ठा मजदूरी में नहीं मिलती।  अपने सेवा का मजदूरी के रूप में प्रतिष्ठा मांगना कहॉ तक न्यायोचित है।  अगर हम आत्मसंतुष्टि के लिए समाजसेवा करते हैं तो हमें अपने कार्य पर प्रसन्न रहना होगा न कि दूसरों प्रतिक्रिया पर । जिस दिन हम प्रतिफल की इच्छा किये बगैर कोई कर्म करना शुरू करेगें।  उस दिन से हमारे कार्य का अपेक्षित प्रभाव समाज पर पड़ेगा और निश्चय ही इससे समाज का कल्याण होगा और हमें उचित सम्मान भी मिलेगा।  कहा भी गया है— नाचने उठे तो घूॅघट कैसा?

अत: निषाद समाज सेवियों से मेरा अनुरोध है कि आलोचना एवं विपरीत परिस्थितियों की चिंता किये बिना अपना कर्तव्य करें उनसे घबरायें नहीं। जब  सफलता हमें मिलेगी तब हमारा विरोधी भी हमारे साथ चलेगें, हमारे कार्य में हाथ बटॉयेगें सच्चे सोना की परख आग में तपाकर किया जाता है।  उसी प्रकार सच्चे साधक की पहचान विपरीत परिस्थितियों में होती है।

संजय कुमार निषाद

बूॅद—बूॅद से घड़ा भरता है।

बूॅद—बूॅद से घड़ा भरता है इस कहावत से कोई अपरिचित नहीं है।  यह एक महत्वपूर्ण कहावत है, जिसने इसका अर्थ समझ लिया, उसका भविष्य प्रकाशमय हो गया।

एक प्रसिद्ध चिंतक का मानना है— धनवान रूपया कमाने से नहीं बल्कि रूपया बचाने से होता है।  हम अगर प्रतिदिन हजार रूपया कमाये लेकिन एक रूपया भी नहीं बचाये तो हम रूपया कभी इकट्ठा नहीं कर पायेगें।  इसके विपरीत अगर हम सौ रूपया कमायो और आधा खर्च कर आधे का बचत करें तो पंद्रह सौ रूपये महीने एवं अठारह हजार रूपये सालाना बचा सकेगें।

निषाद समाज एक कर्मठ समाज है।  इसकी दैनिक आमदानी कम नहीं है, लेकिन दैनिक खपत या खर्च एक अफसर से भी ज्यादा करने का कोशिश करते हैं।  यानि आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया।  फलत: दिन रात घर में कलह होते रहता है।  खर्च भी नाजायज चीजों में ही होता है।  सौ—पचास रूपये का शराब पीने से आदमी बड़ा नहीं हो जाता न ही उससे शारीरिक विकास होता है।  मद्यपान, धुम्रपान, पान—गुटखा अनेक प्रकार के रोगों का कारण है,  इससे शारीरिक क्षति के सा​थ—साथ आर्थिक क्षति भी होती है।  अगर निषाद समाज सोच समझकर चले एवं बचत करना सीखें तो इससे सबल एवं धनी समाज कोई नहीं रहेगा।  निषाद समाज में दान की भावना बहुत कम है, फलत: समाज के हित के गठित स्वयंसेवी संगठन पत्र—पत्रिकाएॅ अर्थाभाव के कारण थोड़े ही दिनों में बंद हो जाती है।  करोड़ों के आबादीवाले समाज का एक भी विद्यालय, अस्पताल, धर्मशाला छात्रावास नहीं है।  अत: सामाजिक बंधुओं से मेरा अनुरोध है कि ​थोड़ा—थोड़ा सामाजिक विकास हेतू दान करें और पहल कर स्कूल,कॉलेज,छात्रावास, अस्पताल का निर्माण करें।
संजय कुमार निषाद

Wednesday, November 2, 2016

Central List of Other Backward Castes (OBCs): Telangana



State : Telangana
Entry No.
Caste / Community
1
Agnikulakshatriya, Palli, Vadabalija, Bestha, Jalari, Gangavar, Gangaputra, Goondla, Vanyakulakshatriya (Vannekapu,Vannereddi, Pallikapu, Pallireddi) Neyyala, Pattapu
2
Balasanthu, Bahurupi
3
Budabukkala
4
Rajaka (Chakali, Vannar)
5
Dasari (formerly engaged in Bikshatana i.e., Beggary)
6
Dommara
7
Gangiredlavaru
8
Jangam (whose traditional occupation is begging)
9
Jogi
10
Katipapala
11
Medari or Mahendra
12
Mondivaru, Mondibanda, Banda
13
Nayi-Brahmin/Nayee-Brahmin (Mangali), Mangala and Bhajantri
14
Vamsha Raj, Pitchiguntla
15
Pamula
16
Pardhi (Nirshikari)
17
Deleted
18
Dammali/Dammala/ Dammula/Damala, Peddammavandlu, Devaravandlu, Yellammavandlu, Mutyalammavandlu
19
Veeramushti (Nettikotala), Veerabhadreeya
20
Valmiki Boya (Boya, Bedar, Kirataka, Nishadi, Yellapi, Pedda Boya), Talayari, Chunduvallu
21
Gudala
22
Kanjara – Bhatta
23
Kepmare or Reddika
24
Mondepatta
25
Nokkar
26
Pariki Muggula
27
Yata
28
Chopemari
29
Kaikadi
30
Joshinandiwala
31
Odde (Oddilu, Vaddi, Vaddelu), Vaddera, Waddera
32
Mandula
33
Kunapuli
34
Aryakshatriya, Chittari, Giniyar, Chitrakara, Nakhas
35
Devanga
36
Goud, Ediga, Gouda (Gamalla), Kalalee, Goundla and Srisayana (Segidi)
37
Gandla, Telikula, Devathilakula
38
Jandra
39
Kummara or Kulala, Salivahana
40
Karikalabhakthulu, Kaikolan or Kaikala (Sengundam or Sengunther)
41
Karnabhakthulu
42
Kuruba or Kuruma
43
Neelakanthi
44
Patkar (Khatri)
45
Perika (Perika Balija, Puragiri kshatriya)
46
Nessi or Kurni
47
Padmasali (Sali, Salivan, Pattusali, Senapathulu, Thogata Sali)
48
Swakulasali
49
Thogata, Thogati or Thogataveerakshatriya
50
Viswabrahmin or Viswakarma (Ausula, Kamsali, Kammari, Kanchari, Vadla or Vadra or Vadrangi and Silpi)
51
Scheduled Castes converts to Christianity and their progeny
52
Arekatika, Katika
53
Bhatraju
54
Chippolu (Mera)
55
Hatkar
56
Jingar
57
Koshti
58
Kachi
59
Surya Balija (Kalavanthula, Ganika)
60
Krishnabalija (Dasari, Bukka)
61
Mathura
62
Mali (where they are not Scheduled Tribe)
63
Mudiraj, Mutrasi, Tenugollu
64
Munnurukapu
65
Neeli
66
Poosala
67
Passi
68
Rangarez or Bhavasara Kshatriya
69
Sadhuchetty
70
Satani (Chattadasrivaishnava)
71
Tammali (Non-Brahmins) (Shudra caste) whose traditional occupation is playing musical instruments, vending of flowers and giving assistance in temple service but not Shivarchakars
72
Uppara or Sagara
73
Vanjara (Vanjari)
74
Yadava (Golla)
75
Pala-Ekari (area confined to Hyderabad and Rangareddy Districts only)
76
Ayyaraka (area confined to Khammam and Warrangal Districts only)
77
Nagaralu
78
Kasikapadi/Kasikapudi (area confined to Hyderabad, Rangareddy, Nizamabad, Mahaboobnagar and Adilabad Districts only)
79
Lodh/Lodhi/Lodha (area confined to Hyderabad, Rangareddy, Khammam and Adilabad Districts only)
80
Kurmi
81
Patra
82
Siddula
83
Sikligar/Saikalgar
84
Budubunjala/Bhunjwa/ Bhadbhunja (area confined to Hyderabad and Rangareddy Districts only)
85
Lakkamarikapu
-
Muslim castes/communities:
86(i)
Mehtar (Muslim)
86(ii)
Dudekula, Laddaf, Pinjari or Noorbash
86(iii)
Qureshi (Muslim Butchers)
86(iv)
Faqir, Fakeer
87
Rajannala, Rajannalu