बच्चे अभिभावकों की नजरों से छिपकर, धुम्रपान,मद्यपान करता है या जुआ खेलता है या अन्य किसी प्रकार के अनैतिक कार्य करता है। समाज में यह परंपरा बन चुकी है कि जो अनैतिक कार्य है या समाज को अमान्य है उसे समाज के नजरों से बचाकर करना चाहिए। कुछ स्वयंसेवी, समाजसेवक अपने जीवन का लक्ष्य जनसेवा बनाता है, लेकिन उसे समाज के, परिवार के सदस्यों के आलोचना का भी भय रहता है, कभी कभी तो वे आलोचना के डर से अपना कार्य स्थगित कर देता है या औरों के नजर बचाकर करता है। यह कैसी बिडंबना है। अगर हम किसी कार्य को अपना लक्ष्य बना लिया तो यह जरूरी नहीं कि लोग हमारा गुणगान करें हमारे कार्य का एवं हमारा स्वागत करें। हम अगर मान—सम्मान के लिए किसी का सेवा करते हैं तो यह हमारा हीन मानसिकता की पहचान होगी। प्रतिष्ठा मजदूरी में नहीं मिलती। अपने सेवा का मजदूरी के रूप में प्रतिष्ठा मांगना कहॉ तक न्यायोचित है। अगर हम आत्मसंतुष्टि के लिए समाजसेवा करते हैं तो हमें अपने कार्य पर प्रसन्न रहना होगा न कि दूसरों प्रतिक्रिया पर । जिस दिन हम प्रतिफल की इच्छा किये बगैर कोई कर्म करना शुरू करेगें। उस दिन से हमारे कार्य का अपेक्षित प्रभाव समाज पर पड़ेगा और निश्चय ही इससे समाज का कल्याण होगा और हमें उचित सम्मान भी मिलेगा। कहा भी गया है— नाचने उठे तो घूॅघट कैसा?
अत: निषाद समाज सेवियों से मेरा अनुरोध है कि आलोचना एवं विपरीत परिस्थितियों की चिंता किये बिना अपना कर्तव्य करें उनसे घबरायें नहीं। जब सफलता हमें मिलेगी तब हमारा विरोधी भी हमारे साथ चलेगें, हमारे कार्य में हाथ बटॉयेगें सच्चे सोना की परख आग में तपाकर किया जाता है। उसी प्रकार सच्चे साधक की पहचान विपरीत परिस्थितियों में होती है।
संजय कुमार निषाद
No comments:
Post a Comment