निषाद समाज के समाजसेवक, राजनेता एवं समाजिक संघों, संगठनों द्वारा समाज को अनुसूचित जाति/जनजाति का आरक्षण का लाभ देने हेतु सरकार से लगातार मांग किया जा रहा है। राजनैतिक दलों द्वारा समय—समय पर खासकर चुनाव के समय इस मांग की समर्थन किया जाता रहा है, पर केन्द्र सरकार द्वारा लगातार इसे अस्वीकार किया जा रहा है या टाला जा रहा है। समाज के ज्यादातर बुद्धिजीवियों द्वारा भी इस तरह की मांग को जायज ठहराया जा रहा है। आज के समय में आरक्षण की मांग तो लगभग सभी जातियां द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से की जा रही है।
आरक्षण कोई नया हथियार नहीं हैं, असल में आरक्षण का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता। जरा ध्यान से सोचिये पहले आरक्षण की व्यवस्था हुई या जातिव्यवस्था। निश्चय ही पहले कुछ काम को कुछ लोगों के लिए आरक्षित की गई, तदुपरांप एक प्रकार के काम करनेवालें लोगों के एक समुह को एक खास नाम से पुकारा जाने लगा होगा, जिसे कलांतर में जाति नाम दिया गया । मुझे ऐसा लगता है कि जातिव्यवस्था बाद में शुरू हुइ है, इसके पहले आरक्षण ही था। इसलिए फिर से आरक्षण की मांग करना अनुचित नहीं है।
समाज में आरक्षण को हटाने के लिए आरक्षण लाना जरूरी है।
इसे ठीक से समझें— जिन लोगों को या जातियों को या समूहो को पहले से आरक्षण है जैसे मंदिर में पूजा—पाठ करने का आरक्षण, देश पर राज करने का आरक्षण, युद्ध करने का आरक्षण, व्यपार करने का आरक्षण,काश्तकारी करने को आरक्षण, मवेशी पालने का आरक्षण, मछली पकड़ने का आरक्षण, नाव चलाने का आरक्षण, जूते बनाने का आरक्षण, गंदगी साफ करने का आरक्षण इत्यादि इस तरह के हजारों काम है जिसे करने का आरक्षण मानव सभ्यता के शुरूआत से है। ये आरक्षण की पुरानी व्यवस्था है जो बहुत मजबूत भी है। इसीलिए आरक्षण की नये व्यवस्था की आवश्यकता है जो शत—प्रतिशत तो नहीं पर कुछ अंश तक पुरानी व्यवस्था में सेंध मार सके और लोग अपने पुश्तैनी काम—धंधा को छोड़कर नये काम—धंधा शुरू कर सके, बस और कुछ नहीं । यानि जिनको पहले से आरक्षण है, उसके काम में कुछ नये लोगों को शामिल करने भर है। लेकिन यह नई व्यस्था भी लोकतंत्र में पुरानी सभी आरक्षित काम में नये लोगों का प्रवेश कुछ अंश तक ही सही की गारंटी नहीें देता। जैसे मछली पकड़नेवाले को मंदिर में पूजा—पाठ कराने के लिए आरक्षण लोकतंत्र में भी कोई नहीं दिला सकता। अगर इस तरह के आरक्षण व्यवस्था कर भी दिया जाये तो सफल नहीं होगा। यानि पूजा—पाठ करने—कराने वालों के लिए अभी भी शत—प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। इस तरह के कई काम है जहॉं आरक्षण की पुरानी व्यवस्था ही लागू है वहॉं नई आरक्षण की कोई गुंजाईश नहीं है।
मैं यह तो नहीं कह सकता कि आजादी के बाद मुख्यधारा के दूर पड़े लोगों के लिए आरक्षण की अवधारणा ही गलत थी, क्योंकि उस समय इससे अच्छा और कोई तरीका नहीं था। लेकिन आज बंचित और पिछड़े समाज के लिए आरक्षण ही काफी नहीं है। सिर्फ इसी से समाज सबल नहीं होगा। क्योंकि आरक्षण सभी क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता, लागू करना संभव नहीं है, लागू करने से भी बहुत ज्यादा लाभ नहीं होगा। अगर समाज या जातियों को विकास करना है तो आरक्षण से भी आगे की सोचना होगा।
अगर वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से लाभ होता जिन जातियों, या समाज को अनुसूचित जाति/जनजाति के रूप आरक्षण को लाभ दिया गया है, वे सभी जातियों के सभी सदस्य सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से सबल और सक्षम होती। लेकिन ऐसा नहीं है। हॉं, पुरानी आरक्षण व्यवस्था कारगार जरूर थी और आज भी कारगार है। बिना किसी दबाव के पुजारी का बेटा पुजारी बन जाता है और मछुआ का बेटा मछुआ।
अब समय है चिंतन करने का कि बिना आरक्षण के सभी जातियों का विकास कैसे हो? इसका उपाय ढूंढना होगा, क्योंकि वर्तमान आरक्षण नीति इतना सक्षम नहीं है कि इससे सभी पिछड़ी जातियों का विकास हो सके। इसलिए जरा संभल के आरक्षण के लिए लड़ने वालों की अगुआई करने वाले तो आरक्षण का लाभ लेकर विकास कर लेगें, लेकिन उनके पीछे के समूह की स्थिति जस की तस रहेगी। शिक्षा एकमात्र विकल्प है विकास का । शिक्षित बनें, फिर आरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी। अन्यथा यह सिलसिला चलता रहा है, चलता रहेगा———कभी तू आगे, मै पीछे। कभी मैं आगे, तू पीछे। साथ चलना है तो आरक्षण नहीं सक्षमता चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि मेरे विचार से सभी सहमत हो, फिर भी इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन के लिए आप सब से अनुरोध है।
संजय कुमार निषाद
आरक्षण कोई नया हथियार नहीं हैं, असल में आरक्षण का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता। जरा ध्यान से सोचिये पहले आरक्षण की व्यवस्था हुई या जातिव्यवस्था। निश्चय ही पहले कुछ काम को कुछ लोगों के लिए आरक्षित की गई, तदुपरांप एक प्रकार के काम करनेवालें लोगों के एक समुह को एक खास नाम से पुकारा जाने लगा होगा, जिसे कलांतर में जाति नाम दिया गया । मुझे ऐसा लगता है कि जातिव्यवस्था बाद में शुरू हुइ है, इसके पहले आरक्षण ही था। इसलिए फिर से आरक्षण की मांग करना अनुचित नहीं है।
समाज में आरक्षण को हटाने के लिए आरक्षण लाना जरूरी है।
इसे ठीक से समझें— जिन लोगों को या जातियों को या समूहो को पहले से आरक्षण है जैसे मंदिर में पूजा—पाठ करने का आरक्षण, देश पर राज करने का आरक्षण, युद्ध करने का आरक्षण, व्यपार करने का आरक्षण,काश्तकारी करने को आरक्षण, मवेशी पालने का आरक्षण, मछली पकड़ने का आरक्षण, नाव चलाने का आरक्षण, जूते बनाने का आरक्षण, गंदगी साफ करने का आरक्षण इत्यादि इस तरह के हजारों काम है जिसे करने का आरक्षण मानव सभ्यता के शुरूआत से है। ये आरक्षण की पुरानी व्यवस्था है जो बहुत मजबूत भी है। इसीलिए आरक्षण की नये व्यवस्था की आवश्यकता है जो शत—प्रतिशत तो नहीं पर कुछ अंश तक पुरानी व्यवस्था में सेंध मार सके और लोग अपने पुश्तैनी काम—धंधा को छोड़कर नये काम—धंधा शुरू कर सके, बस और कुछ नहीं । यानि जिनको पहले से आरक्षण है, उसके काम में कुछ नये लोगों को शामिल करने भर है। लेकिन यह नई व्यस्था भी लोकतंत्र में पुरानी सभी आरक्षित काम में नये लोगों का प्रवेश कुछ अंश तक ही सही की गारंटी नहीें देता। जैसे मछली पकड़नेवाले को मंदिर में पूजा—पाठ कराने के लिए आरक्षण लोकतंत्र में भी कोई नहीं दिला सकता। अगर इस तरह के आरक्षण व्यवस्था कर भी दिया जाये तो सफल नहीं होगा। यानि पूजा—पाठ करने—कराने वालों के लिए अभी भी शत—प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। इस तरह के कई काम है जहॉं आरक्षण की पुरानी व्यवस्था ही लागू है वहॉं नई आरक्षण की कोई गुंजाईश नहीं है।
मैं यह तो नहीं कह सकता कि आजादी के बाद मुख्यधारा के दूर पड़े लोगों के लिए आरक्षण की अवधारणा ही गलत थी, क्योंकि उस समय इससे अच्छा और कोई तरीका नहीं था। लेकिन आज बंचित और पिछड़े समाज के लिए आरक्षण ही काफी नहीं है। सिर्फ इसी से समाज सबल नहीं होगा। क्योंकि आरक्षण सभी क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता, लागू करना संभव नहीं है, लागू करने से भी बहुत ज्यादा लाभ नहीं होगा। अगर समाज या जातियों को विकास करना है तो आरक्षण से भी आगे की सोचना होगा।
अगर वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से लाभ होता जिन जातियों, या समाज को अनुसूचित जाति/जनजाति के रूप आरक्षण को लाभ दिया गया है, वे सभी जातियों के सभी सदस्य सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से सबल और सक्षम होती। लेकिन ऐसा नहीं है। हॉं, पुरानी आरक्षण व्यवस्था कारगार जरूर थी और आज भी कारगार है। बिना किसी दबाव के पुजारी का बेटा पुजारी बन जाता है और मछुआ का बेटा मछुआ।
अब समय है चिंतन करने का कि बिना आरक्षण के सभी जातियों का विकास कैसे हो? इसका उपाय ढूंढना होगा, क्योंकि वर्तमान आरक्षण नीति इतना सक्षम नहीं है कि इससे सभी पिछड़ी जातियों का विकास हो सके। इसलिए जरा संभल के आरक्षण के लिए लड़ने वालों की अगुआई करने वाले तो आरक्षण का लाभ लेकर विकास कर लेगें, लेकिन उनके पीछे के समूह की स्थिति जस की तस रहेगी। शिक्षा एकमात्र विकल्प है विकास का । शिक्षित बनें, फिर आरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी। अन्यथा यह सिलसिला चलता रहा है, चलता रहेगा———कभी तू आगे, मै पीछे। कभी मैं आगे, तू पीछे। साथ चलना है तो आरक्षण नहीं सक्षमता चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि मेरे विचार से सभी सहमत हो, फिर भी इस मुद्दे पर गंभीर चिंतन के लिए आप सब से अनुरोध है।
संजय कुमार निषाद
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