मंजिल तो पाना है।
शिखर पर जाना है।
चाहे कुछ भी हो जाये,
खुद से किये वादा निभाना है।
संजय कुमार निषाद
Thursday, December 13, 2007
Thursday, November 22, 2007
राष्ट्रीय घ्वज का अपमान
पिछले दिनों मीडिया में यह खबर दिखाई गई कि हाल में जयपुर में संपन्न हुए भारत-पाकिस्तान के बीच एक दिनी क्रिकेट मैच के दौरान कुछ अति-विशिष्ट विदेशी अतिथियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया गया। समाचार में जो दिखाया गया उससे स्पष्ट होता है कि तिरंगा को बिछाकर उसपर शराब की प्याली रखना उन अतिथियों के लिए मनोरंजन का विषय हो सकता है। क्रिकेट बोर्ड के पदाधिकारियों. के लिए उन विदेशी अतिथियों को बुलाना गौरव की बात हो सकती है, लेकिन क्या भारत के आम नागरिक के लिए यह मनोरंजन अथवा सम्मान की बात है? मेरे ख्याल से इसमें उन अतिथियों का कोई दोष नहीं है बल्कि उन्हें बुलाने वाले दोषी है। आयोजक को चाहिए था कि अगर उनका अति-विशिष्ट अतिथि कोई विदेशी है तो उनके लिए उनके जरुरतों की चीज का इंतजाम करें। भारत के राष्ट्रीय ध्वज का वहाँ क्या काम था ?
इस प्रकरण से एक चिंतन का विषय और हो सकता है कि क्या खेल के मैदान में सिर्फ मनोरंजन के लिए राष्ट्रीय ध्वज का उपयोग पर रोक नहीं लगाना चाहिए? हमलोग बचपन से सुनते आ रहे हैं ‘ खेल को खेल भावना से खेलना चाहिए ‘ तो क्या खेल के दौरान राष्ट्रीय ध्वज चाहे वह किसी भी देश का हो, फहराना खेल भावना है ?
भारत में क्रिकेट को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का विषय बनाया जा रहा है। यह कहाँ तक उचित है? आज हमारे राष्ट्रीय खेल और खिलाड़ियों की दुर्दशा पर सोचने के लिए किसी पास समय नहीं हैं। राष्ट्रीय खेल के प्रतिष्ठित खिलाड़ी एक-एक रुपया के लिए मोहताज है, लेकिन क्रिकेट के खिलाड़ी दिनों दिन मालामाल हो रहे हैं। सिर्फ राष्ट्रीय खेल ही क्यों क्रिकेट के अलावा यहाँ के अन्य सभी खेलों के साथ तो सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। परिणामत: जब अंतराष्ट्रीय स्तर पर खेलों की प्रतियोगिता होती है तो पदक तालिका में हमारे देश का नाम नीचे लिखा होता है, तो भी हमें शर्म नहीं आती है। हमें तो सिर्फ क्रिकेट वर्ल्ड कप चाहिए।
वैश्वीकरण के इस दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत जैसे देश में अपने उत्पाद को खपाने के लिए क्रिकेट एक अच्छा हथियार मिल गया है। इसीलिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सबसे अमीर बोर्ड है। हमारा मतलब यह इससे नहीं है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अमीर क्यों है? हमारा मतलब इससे है कि धन के मद में हमारे राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत या हमारी सभ्यता- संस्कृति का अपमान नहीं हो। अच्छा तो यह होगा कि खेल के मैदान में राष्ट्रीय ध्वज का इस तरह का खुला प्रदर्शन न हो, यानि दर्शक राष्ट्रीय ध्वज मैदान में न लेकर जायें।
Wednesday, November 21, 2007
ख़बरिया चैनल बनाम बाजारिया चैनल
आजकल 24 घंटे दिखने वाली खबरिया चैनलों की बाढ़ आ गई है। इनको कोई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक मुद्दा नहीं चाहिए, बल्कि कोई मसालेदार, चटखदार, सनसनीखेज खबर चाहिए। खबर दिखाने से किसका ज्यादा नुकसान होगा, यह सोचना इसका काम नहीं है। खबर दिखाने से इनको कीतना फायदा होगा, सिर्फ इसका ख्याल करते हैं। ऐसी ख़बर जिससे समाज का कुछ भी हित होनेवाला नहीं, उसे ये सामाजिक मुद्दा बनाते हैं, सीधा प्रसारण कर समाज एवं संबंधित सदस्यों जीना दूभर कर देते हैं। अगर कोई महिला एक पति के खो जाने या बिछड़ जाने के बाद दूसरी शादी कर लेती है और कुछ सालों के बाद अगर उसका पहला पति आ जाता है। तो इसमें कोई भी समाज को क्या आपत्ती हो सकती है? ये तीनों की नीजि मामला है, इसे सीधा प्रसारण कर समाज के बीच मनोरंजन का साधन बना देना कितना उचित है ?
पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित चैनल द्वारा (गोधरा) गुजरात में हुए दंगे से संबंधित स्टिंग ऑपरेशन के कारनामें दिखा रहे थे। बोल तो ऐसे रहे थे कि बहुत बड़ा काम लिये हों, जिससे देश का नाम रोशन होगा। गोधरा में हुए दंगे में काफी लोग मारे गये, करोड़ों का नुकसान हुआ, सैकड़ों घर तबाह हुए, इसमे कोई शक नहीं है। इसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है। इस तरह के क्रूरतापूर्वक किया गया काम सभ्य समाज के नाम पर कलंक है। लेकिन क्या गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में जो किया गया था, वो क्या मानवता के खिलाफ नहीं था? क्या चैनलवालों की यह जिम्मेवारी नहीं थी कि उस हादसे का भी जिक्र करते? किसी एक राजनैतिक पार्टी या राजनेता के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन करना कहाँ की अक्लमंदी है? क्या चैनलवालों का यह सोचना काम नहीं है कि इस स्टिंग ऑपरेशन से समाज में वैमनस्यता का भाव उत्पन्न होगा। फिर से कोई बड़ी कांड हो सकता है। दोनों समाज के लोग जो सब कुछ भुला कर जीना शुरु कर दिये हैं, वे फिर से अपने आप को कुंठित महशुश करेगें। राजनैतिक लाभ-हानि तो दूसरी बात है, उसकी चिंता तो राजनेता करेगें, लेकिन समाज को जो हानि होगी, उसकी चिंता कौन करेगे?
24 घंटे वाली समाचार चैनलों की ढ़ेर में कोई भी एक ऐसा चैनल नहीं है, जो आधे घंटे में देश-प्रदेश की सारी खबरें दिखा दे। इसके लिए ऐश्वर्या राय की करवाचौथ बड़ी खबर होती है, लेकिन अगर एक बच्चा दूध के खातिर दम तोड़ता है तो वह बड़ी खबर नहीं होता। लगभग सभी चैनल अपना ध्यान नगरों और महानगरों पर केन्द्रित किये हुए हैं। गाँवों और कस्बों की बात एवं समाचार दिखानेवाला कोई नहीं हैं।
वास्तव में समाचार चैनलवालों का मकसद सिर्फ और सिर्फ रुपया कमाना होता है। देश का यह चौथा स्तंभ आज ऐसे विज्ञापन से भरे-पड़े हैं, जिसे परिवार के साथ देखना मुश्किल होता जा रहा है। अंतःवस्त्रों के विज्ञापनों के नाम पर जो नंगापन दिखाया जा रहा है, उसे चौथा स्तम्भ का काम तो छोड़िये, एक जिम्मेदार नागरिक का भी काम नहीं माना जा सकता है ? अब समाज और सरकार दोनों की जिम्मेवारी है कि ऐसे समाचार चैनलों के खिलाफ आवाज उठायें।
Wednesday, October 31, 2007
प्रस्तावना
निषाद जाति भारतवर्ष की मूल एवं प्राचीनतम जातियों में से एक हैं। रामायणकाल में निषादों की अपनी अलग सत्ता एवं संस्कृति थी, एवं निषाद एक जाति नहीं बल्कि चारों वर्ण से अलग "पंचम वर्ण" के नाम से जाना जाता था। आदिकवि महर्षि बाल्मीकि, विश्वगुरू महर्षि वेद व्यास, भक्त प्रह्लाद और रामसखा महाराज श्रीगुहराज निषाद जैसे महान आत्माओं ने इस जाति सुशोभित किया है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी इस समुदाय के शूरवीरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, लेकिन आज इस समुदाय के लोंगो में वैचारिक भिन्नता के कारण समुदाय का विकास अवरुद्ध सा हो गया है। उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार पर समुदाय का विखंडन हो रहा है, फलतः समुदाय के सामाजिक, धार्मिक आर्थिक एवं राजनैतिक मान-मर्यादा में ह्रास हो रहा है। इसी वैचारिक भिन्नता का उन्मूलन एवं उप-जाति, कुरी, गौत्र के आधार सामाजिक विखराव को रोकने हेतु एक प्रयास किया जा रहा है। इस ब्लोग के माध्यम से हम अपने समुदाय के सभी सदस्यों को भाषा, क्षेत्र, उप-जाति, कुरी, गौत्र जैसे भेदभाव मिटाकर आपसी एकता को मजबूत करने का अनुरोध करते हैं।
निषाद समुदाय भाषा एवं क्षेत्र के अनुसार विभिन्न नामों से जाने जाते है, जैसे कश्यप, मल्लाह, बाथम, रायकवार इत्यादि।
संजय कुमार निषाद
Monday, October 8, 2007
प्रतिभा बनाम प्रतिभा
भारत का प्रथम नागरिक कैसा हो? अगर संबैधानिक उपबन्धों को छोड़ दें तो प्रत्येक भारतीय की हार्दिक इच्छा होती है कि भारत का राष्ट्रपति बहुमुखी प्रतिभा के धनी हो, जिनके पास भारत को एक सबल, समर्थ राष्ट्र बनाने की सोच हो एवं राजनीति पृष्ठभूमि का नहीं हो। यह सच भी है कि आज तक जितने लोग राष्ट्रपति पद को शुसोभित किये हैं, वे अपने-अपने क्षेत्र के महान हस्ती रहे हैं और संभवतः पद की गरिमा को बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़े। भूतपूर्व राष्ट्रपति माननीय डा0 अबुल कलाम आजाद इस पद को जिस ऊँचाई पर ले गये वह वर्तमान राष्टपति एवं भावी राष्ट्रपति के लिए अनुकरणीय होगा। उनके कार्यकाल के पूर्व यह माना जाता था कि भारत का राष्ट्रपति ब्रिटेन की साम्राज्ञी की तरह राजा होता है, जिसे आम नागरिक या आम जींदगी से बहुत कम ही सामना करना होता है। डॉ0 कलाम ने इस पद पर रहते हुए जिस प्रकार से बच्चों, किसानों और समाज के हर वर्ग के लोगों के लिए सुलभ बना दिये, प्रशंसनीय और भारत में उच्च पदों पर आसीन राजनेता और नौकरशाह के लिए एक सबक भी है, एक मिसाईलमैन राजा जो बच्चों के अभिभावक एवं पथ-प्रदर्शक थे। जिन्होनें अपने कृत से राष्ट्र को सबल बनाया और व्यक्तित्व से सबके चहेते बना। मिलनसार, भावुक एवं सब धर्मों के गूढ़ रहस्यों की व्याख्या करने वाले वैज्ञानिक। जिनकी प्रतिभा की प्रशंसा करना भी उनके जैसा प्रतिभाशाली लोगों के वश की बात है, मुझ जैसे लोगों के लिए यह कार्य अत्यन्त कठिन है।
सबाल यह है कि सिर्फ राजनीतिक अहं के लिए या स्पष्ट कहें, तो राजनीतिक फायदे के इस पद का दुरुपयोग किया जाना चाहिए? अगर संविधान निर्माताओं ने इस पद को सीधे जनता के हाथ में न देकर अप्रत्यक्ष रुप से जनता को दिया, को क्या जन प्रतिनिधियों को जनता की भावनाओं का ख्याल नहीं करना चाहिए? एक व्यक्ति जिसे सारा देश समर्थन दे रहा है, को क्या सर्वसम्मति से इस पद पर आसीन नहीं करना चाहिए? क्या केवल इस एक पद को राजनीति का अखाड़ा बनाये बिना नहीं रख सकते हैं ? अंतःभावना से तो सब सहमत होंगे लेकिन, इस पद के पीछे छिपे निहित स्वार्थ के लिए सब एकजुट नहीं होते हैं, बहुमत दिखाते हैं।
वर्तमान समय में भारत का राष्ट्रपति ऐसे लोगों को बनाना चाहिए जिनके पास नई सोच हो न कि घिसी-पिटी राजनैतिक विचारधारा, जिसमें आश्वासन, बयान फिर खंडन के सिवाय कुछ भी नहीं होता।
सत्तादल एक प्रतिभा को हटाकर दूसरी प्रतिभा को भारत के राष्ट्रपति के पद पर शुसोभित करने में सफल हो गई। जहाँ एक के पास काम करने की प्रतिभा थी, दूसरी की नाम ही प्रतिभा है। काम और नाम में कितनी समानता है ये किसी से छिपा नहीं है। महिला सशक्तिकरण के नाम पर जिस प्रकार एक विवादस्पद महिला को भारत का प्रथम नागरिक बनाया गया यह सम्मान का नहीं बल्कि चिंता का विषय हो सकता है।
भारत की महिला महामहिम प्रतिभा पाटिल जी से सशक्त होगी या किरण बेदी से यह बात संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा माननीय सोनिया गाँधी जी को भी अच्छी तरह पता है, लेकिन स्वार्थवश इंसान क्या नहीं करता और गँवाता। महाभारत में धृतराष्ट्र पुत्र मोह के कारण ही सत्ता समेत अपने सौ पुत्रों को गँवाये थे। इतने बड़े देश में सत्ता दल को एक ऐसा उम्मीदवार नहीं मिला जो दागदार नहीं हो।
इसबार राष्ट्रपति चुनाव में एक छोटी सी घटनाक्रम और हुआ, विपक्षी गठबंधन के एक महत्त्वपूर्ण घटक दल द्वारा क्षेत्रीयता के आधार पर मतदान करना। उस पार्टी और संबंधित क्षेत्र के लिए भले ही यह गौरव की बात हो सकती है, लेकिन देश और समाज के लिए यह शुभ संकेत नहीं हो सकती। इस तरह की नीच सोच से देश की एकता, अखंडता एवं धर्मनिरपेक्षता पर खतरा उत्पन्न हो सकती है।
Tuesday, August 14, 2007
आयें युग का मान बदल दें
सदियों से शोषित-दलित और उपेक्षित,
उपजाति, कुरी गोत्र में खंडित।
अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता से ग्रसित।
बिन मांझी की नौका सी दिग्भ्रमित।
कोटि-कोटि मानव का अज्ञान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
घूँट आँसुओं के पीते हैं जो.
शोलों और अंगारों पर जीते हैं जो।
अनवरत, अथक परिश्रम कर दर्द छिपाते सीनें में,
चीड़ सुदामा सा सीते हैं जो।
उनके माथे का निशान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
कोटि-कोटि निर्बल मानव.
ताक रहे निर्मल अनंत नभ।
क्षण भर में कर दे जो विप्लव,
आयेगा कब वह मनुज प्रगल्भ।
हम उनका अरमान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
मूक-पाषाण सा अनंत पथ को निहारता,
शायद मिट चुकी उनकी भाग्य की रेखा।
भूल चुके हैं इनको इनके भाग्य विधाता।
या है पूर्व जन्म का लेखा-जोखा।
हम विधि का वह विधान दें।
आयें युग का मान बदल दें।
संजय कुमार निषाद
Monday, August 13, 2007
ड्रेस का चक्कर
चार मित्र थे, लेकिन चारों अलग-अलग धर्म के मानने वाले थे। एक हिन्दू, दूसरा मुसलमान तीसरा सिख और चौथा ईसाई। एक बार चारों का मन हुआ कि हवाई सैर किया जाए। योजना क्रियांवित हुई, चारों एक हेलीकॉप्टर से सैर करने निकले। पर क्या? कुछ ही दूरी पर पायलट ने सूचित किया कि ईंजन में खराबी आ गई है।हेलपकॉप्टर को न तो बचाया जा सकता है न ही जमीन पर उतारा जा सकता है। अब तो मरने के अलावा कोई चारा नहीं है। चारों के हाथ से तीतर उड़ गए, काटो तो खून नहीं।
चारों ने बचने का एक उपाय ढूँढ़ा कि अपने-अपने इष्टदेव का नाम लेकर नीचे कूद जाते है अगर उपर वाले की मर्जी होगी तो बचा लेंगे। एक-एक कर अपने-अपने इष्टदेव का नाम लेकर कूदने लगे। पहले ईसाई ओह गोड मुझे बचा लो- कहकर कूद गये और सकुशल धरती पर पहुँच गये। गॉड को थैंक कहा और बाँकी तीनों का इंतजार करने लगा। इसके बाद सिख वाहे गुरू मुझे बचा लो- कहकर कूद गये और सकुशल धरती पर पहुँच गये। वे भी वाहे गुरू को लख-लख शुक्रिया कहा और बाँकी दोंनो का इंतजार करने लगा।इसके बाद मुसलमान भाई अल्लाह मुझे बचा लो- कहकर कूद गये और सकुशल धरती पर पहुँच गये। अल्लाह को शुक्रिया कहा और बाँकी एक का इंतजार करने लगा।अंत में हिन्दू अकेला बचा था कॉपते-कॉपते उसने जय श्रीराम मुझे बचा लो- कहकर कूद गये । लेकिन यमराज के डर से आधे रास्ते में बोला सीता मैया मुझे बचा लो। धरती पर पहुँचे और मर गये।
मरने के बाद यमराज के पास पहुँचा और गाँधीगिरि करने लगा। भगवान राम से मिलने की मांग लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गया। स्वर्ग के सारे अधिकारी कर्मचारी परेशान हो गये। अंत में मांग पूरी की गयी और उसे भगवान राम से मिलवाया गया। भगवान श्री राम ने उसकी मिलने का कारण पूछा तो उसने गुस्से में कहा- भगवान इसाई दोस्त अपने गॉड का नाम लिया, हेलीकॉप्टर से कूदा और बच गया। सिख दोस्त वाहे गुरू का नाम लिया, हेलीकॉप्टर से कूदा और बच गया। मुसलमान दोस्त अपने अल्लाह का नाम लिया, हेलीकॉप्टर से कूदा और बच गया।
मैंने आपका नाम लिया हेलीकॉप्टर से कूदा और मर गया, मेरी क्या गलती थी? अगर उन लोंगो का ईश्वर उसे बचा सकते हैं तो आप मुझे क्यों नहीं बचाये? भगवान श्रीराम ने मुस्कुराते हुए समझाया, वत्स इसाई गॉड का नाम लिया। मैं गॉड बनकर गया और बचा लिया। सिख वाहे गुरू का नाम लिया। मैं गुरू बनकर गया और बचा लिया। मुसलमान अल्लाह का नाम लिया। मैं अल्लाह बनकर गया और बचा लिया। तुमने राम का नाम लिया। मैं राम बनकर जा ही रहा था कि आधी रास्ते में तुमने सीता मैया को पुकारा। मैं सीता बनने लगा। परेशानी यहीं उत्पन्न हो गयी मुझे सा़ड़ी पहनने में थोड़ी देर हो गई, और तुम्हे बचा नहीं सका। वास्तव में मैं एक ही हैं।
Tuesday, July 24, 2007
अमर शहीद जुब्बा सहनी के प्रति
जुब्बा चैनपुर का ध्रुवतारा,
भारत का अनमोल लाल था।
दीन -हीन असहायों का बल,
मूक ह्रदय का झंकृत ताळ था।
जुब्बा नाम था उस शूरवीर का,
निरंतर जलाये थे जो क्रान्ति की मशाल।
जुब्बा नाम था, उस भारतरत्न का,
भारत माँ को जो किया निहाल।
जुब्बा गरीबी को देखा ही नहीं बल्कि,
गरीबी में पल-बढकर चलना सीखा था।
गुलाम था गोरों के पर स्वाभिमान को,
गिरवी रखकर नहीं जीना सीखा था।
जुब्बा अन्याय अत्याचार देखकर,
चुप कहॉ रहने वाला था?
अंतिम सांस तक वह,
दुष्ट पापियों से लड़ने वाला था।
जुब्बा मूक जड़-जंतुओं सा,
केवल खाने-पीने नहीं आया था।
वह तो सदियों से सोये,
जन-जन को जगाने आया था।
१९ मार्च ४४ का वह मनहूस दिन भी आया,
जब क्रूर गोरों ने उसे फांसी पर चदाया था।
क्योंकी उस लौहपुरुष ने अत्याचारी अन्यायी दरोगा,
मिस्टर बालर को थाने में ही जिंदा जलाया था।
छोड़कर जग को वह नभ का तारा,
चला गया नभ में।
देकर अपनी बलिदानी,
जगा दिया कुम्भ निन्द्रा से हमें।
संजय कुमार निषाद
ग़ज़ल (३)
आपका आना कितना खुशगवार लगता है,
पर इस तरह छोड़कर जाते क्यों हैं?
हम भी मोहब्बत कम नहीं करते,
आप इस तरह प्यार जताते क्यों हैं?
आपको भी कुछ पाने की तमन्ना है,
हमे इस तरह तरसाते क्यों हैं?
हमने दिल लगाया गलती नहीं की,
मुझे देखकर इस तरह मुस्कुराते क्यों है?
आंखों से कह दिए सब कुछ आपने,
ओठ खोलने में शरमाते क्यों हैं?
मेरी जिन्दगी में बहार लाया आपने,
अब आग लगाकर दिल जलाते क्यों हैं?
पल गुजरता है सौ साल की मानिंद,
आप इस तरह मुझे भूल जाते क्यों हैं?
हमें आपसे कोई शिकवा नहीं है,
आपको गिला है निषाद तो छुपाते क्यों हैं?
संजय कुमार निषाद
ग़ज़ल (२)
इस तरह मुस्कुरा कर नहीं सजा दीजिए,
जुर्म क्या है मेरा सरकार बता दीजिए।
इतने करीब रहके भी कितने दूर-दूर हैं,
इस फासला को एकबार मिटा दीजिए।
ये प्यार है, छलावा है या और कुछ,
आपको क़सम मेरी ये राज मुझे समझा दीजिए।
मेरा तो मंजिल आप है, शायद मैं आपका नहीं,
फुरसत मिले तो मेरे साथ भी चला कीजिये।
कितने खुशनसीब तो हैं, मुकद्दर जिनके साथ है,
आप भी मेरे उजड़े गुलशन में खिला कीजिये।
आपकी ये नजरें कितना कातिलाना लगता है,
डूब रहे है इश्क के दरिया में हमें बचा लीजिये।
मर्ज बढ़ता ही जा रह है करे क्या निषाद?
कुछ दवा दीजिए, कुछ दुवा कीजिये।
संजय कुमार निषाद
Monday, July 23, 2007
ग़ज़ल (१)
चारों तरफ हवा है कि हवा नहीं है।
ये मर्ज ऐसा है कि इसकी दवा नहीं है।
खुदकुशी कर रही हैं, रोज-रोज हजारों लडकियां ,
आशिकों की शिक़ायत है, उनके लिए महबूबा नहीं है।
उनके शह पर होती हैं क़त्ल चौराहों पर भी,
बडे मासूमियत से कह रहे हैं, उनका दबदबा नहीं है।
बच्चे भी होते तो छोड़ देते खेल इस आंख मिचौली का,
वे कब्र में पांव पसारकर कह रहे हैं, मन अभी उबा नहीं है।
बहा ले गयी सैलाब बस्ती के बस्ती,
वे कह रहे हैं, उनकी किश्ती अभी डूबा नहीं है।
थक गए लोग गालियाँ देते देते उनको,
वे मुस्कुराकर कह रहे हैं, लोग हमसे खफा नहीं हैं।
निज स्वार्थ के खातिर करते हैं सौदा, इज्जत और इमान का,
वे कहते हैं, राष्ट्रभक्ति है ये दगा नहीं है.
बद कौन नहीं है, बदनाम वे है जिन्होंने,
बदनामी से बचने का गुर सीखा नहीं है।
अँधेरे और उजाले में फ़र्क कितना रह गया है,
नासमझ वो है जिसने अँधेरे में चलना सीखा नहीं है।
मंदिर-मस्जिद सिर्फ नाम के है, निषाद,
सच पूछ कौन किसको कहॉ ठगा नहीं है.
संजय कुमार निषाद
मेरी अभिलाषा
हर घर में दीप जले,
हर उपवन में फूल खिले।
भूलकर गिले शिकवे,
आपस में सब गले मिले।
मेरी अभिलाषा है।
जाति धर्म के लिए न कोई लड़े,
सीमा सरहद पर न बहे ख़ून.
न उजड़े मांग किसी का,
न किसी का हो गोद सून.
मंदिर- मस्जिद न टूटे,
न हो सांप्रदायिक तनाव।
भाई-भाई का दुश्मन न हो,
सबके ह्रदय में हो प्रेम भाव।
मेरी अभिलाषा है।
भू न बँटे लकीरों से,
बिहागों सा सबका हो घर-बार।
पूरब-पश्चिम का भेड़ न हो,
सब करे आपस में प्यार।
मेरी अभिलाषा है।
स्वच्छंद विचरण करे बिहगों सा नभ में,
रोक-टोक न हो जग में।
मुक्त हस्त से बाँटे सब धन धान्य,
डूबे न कोई कभी आलस्य प्रमाद में।
मेरी अभिलाषा है।
दूध के लिए न कोई बच्चा रोये,
रोटी के लिए न करे कोई देह व्यापार।
भयमुक्त हो सारा विश्व,
निर्बलों,असहायों पर न हो अत्याचार।
मेरी अभिलाषा है।
संजय कुमार निषाद
Thursday, July 19, 2007
दौड़
जिन्दगी की इस दौड़ में कौन नहीं नजर आता है भागते हुए?
नाम, यश, माया के मोह में नर्तकों सा नाचते हुए।
खाली गोदाम हो गई तोड़ दिये दम हजारों भूख से तड़पते हुए,
नाम जिस पर करोड़ों का लिखा था, चंद लोगों के नास्ते हुए।
बड़ी मुश्किल से बनाए थे उनको दुःख दर्द अपनी बांटने के लिए,
दिखाई दिए वे एक दिन ऑपरेशन चक्रव्यूह में कमीशन पकड़ते हुए।
चलती थी भीड़ जिनके पीछे भेड़ की तरह एक इशारे पर,
थका नहीं वी कभी दल, कुर्सी ईमान और उसूल बदलते हुए।
कहते हैं लोग वे आतंकवादी , कट्टरपंथी और मानवता का दुश्मन था,
देखा था हमने जिसको अहिंसा के पुजारी के घर कल पनाह लेते हुए।
पंडित, मौलवी और फ़ादर थक गाए फैसला हो न सका ख़ून किसका था ,
बम विस्फोट के बाद देखा जो उनहोंने ख़ून इन्सान का बहते हुये।
हंसते हैं लोग जिस पर वेवकूफ पागल समझकर, बडे समझदार निकले,
उनके पाचनतंत्र कमाल था, उफ तक नहीं बोले जानवरों का चारा निगलते हुए।
सती-सावित्री तक की चरित्र की अभिनय की उनहोंने चलचित्र में,
देखा था हमने जिनको मंच पर अन्तःवस्त्र हटाते-बदलते हुए।
भक्तों की लगती थी लंबी कतार जिनकी चरनामृत पाने के लिए,
पकड़ाये वही अपने सेवक के गले पर चाकू रगड़ते हुए।
देश के भाग्य विधाता, कानून निर्माता वे हैं,
समय बिताते हैं जो संसद में बंदरों सा झगड़ते हुए।
किसे सुनाये हम कौन सुनेगा हमारा,
अब तो आदत सी हो गई है, ये सब सहते हुए।
ये समय का चक्र है किसने देखा है इसको ठहरते हुए,
नासमझ था निषाद उम्र गुजर दी ईमान के खाली कनस्तर पकड़ते हुए।
संजय कुमार निषाद
Tuesday, July 17, 2007
हमें न चाँद चाहिए, न चमन चाहिए।
हमें न चाँद चाहिए , न चमन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
पड़ोसियों के ताप से कश्मीर पिघल रहा है।
स्वच्छंदता के लिए असाम , नागालैंड मचल रहा है।
आपसी वैमनस्यता की खाई में,
बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र जल रहा है।
बुझाए जो इन ज्वालाओं को हमें वह तेज पवन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
आतंकवाद, अलगाववाद बढ़ता जा रहा है।
पडोसी नित नए नए कारनामें गढ़ता जा रहा है।
न्याय नीति की सीमा लांघकर हमें बाँधने को,
वेशर्मों की तरह दोष हमपर मढ़ता जा रहा है।
हमे बाँधने को यह छुद्र नीति नहीं मित्रता की पवित्र बन्धन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
मस्जिद में न सिसके अल्लाह ,
मंदिर में न रोये ईश्वर।
प्रेम सहिस्नुता, भाईचारा के लिए,
सलीब पर न फिर चढ़े गिर्जेवाले परमेश्वर।
हमें भय भेदभाव मुक्त सुंदर स्वच्छ वतन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
इंच भर जमीन के खातिर लड़े न सीमा पर भाई हमारा।
उजड़े न किसी की मांग, सूना हो ना किसी का गोद।
असहाय , निर्बलों शोषितों का ख़ून पीकर,
उनके कब्र पर अट्टालिका बनाकर ना कोई करे मनोविनोद।
किसी कली को मसले न कोई, हमें वह उपवन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
संजय कुमार निषाद
विश्व गुरू व्यास के प्रति
प्रति वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा को तुम्हारी याद लिए।
आसमान में बदल उमड़ आते हैं।
श्रद्धा - सुमन तुम्हें अर्पित करने को,
वर्षा की कुछ बूंदे झड़ जाते हैं।
मानव ही नहीं प्रकृति भी,
तुम्हारे वियोग से विक्षिप्त हैं।
नेत्रों से गिर रहे हैं बूंदे अश्कों के,
सबका हृदय आज द्रवित हैं।
युग -युग का पथ प्रदर्शक,
तू तिमिर विनाशी अमर-उजाला।
सनातन धर्मं के प्रबल पुरोधा,
तू मानवता के निर्भीक रखवाला।
तू वो मानव नहीं जो आकर,
अट्टलिकाऔं में विखर गए।
तू कुछ असाधारण करने हेतु,
देवों सा कण-कण में ठहर गए।
हाथी- घोड़ों के नहीं,
मानव चेतना के रथ पर चढा।
खोलने अज्ञानता का दुर्ग।
सबसे पहले तू ही आगे बढ़ा।
तू प्रभात की प्रथम किरण बन,
सदियों से सुप्त मानव को जगाया।
पल्लवित करने जीर्ण शीर्ण काया को,
ओस की बूंदे बन भू पर आया।
तू सागर की लहर बन,
अस्पृश्यता के तट से टकराया।
हम सब मानव एक ही पिता के पुत्र हैं,
यह संदेश जन-जन तक पहुंचाया।
संजय कुमार निषाद
Monday, July 16, 2007
प्रार्थना
तन तेरी, मन तेरी।
और माँ यह जीवन तेरी।
है क्या मेरा जो करूं तुम्हें अर्पण ?
जो तेरा है, तुम्हें करूं कैसे समर्पण?
कली कुसुम की हार,
संगीत की मधुर झंकार।
विज्ञान लोक की अभिनव उपहार।
ग्रंथों कि हर अंकन तेरी।
हिमनद नालाऔं की नीर,
लघु-गुरू जड़ चेतन शरीर।
रजा-रंक और फकीर।
भू की कण-कण तेरी।
झंझाऔं की माया जाल,
विलासिता की महल विशाल।
तम प्रसारक और मशाल।
नृत्य की हर मंचन तेरी।
मैं ठहरा बिन्दु से भी लघु,
मेरी माँ फिर भी है तू।
सिवा तेरे और कहॉ जाऊं?
सहकर पीड़ घनेरी।
२ माँ
जाऊँ तो कहॉ जाऊँ माँ?
व्यथा अपनी किसे सुनाऊँ माँ ?
ग्लानी गरल पीकर कैसे?
अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।
देखकर मेरी हालत ऎसी,
कोई हँसते कोइ लजाते हैं।
यह जग तो हैं,मधुर मिलन हेतु,
मुझे तो निज भी दूर भगाते हैं।
स्वच्छंद विचरण हेतु तेरे,
निर्मित असीमित आहते हैं।
विकल हूँ एक पग बढ़ाने को,
मेरे पांवों मे बेड़ियाँ जकड़े हैं।
तेरी ममतामयी वह गोद
हृदय तो सागर से भी गहरे हैं।
यहाँ प्यार पाऊँ तो किसका?
सबके वाणी में विष घुले हैं।
तुम्हारी स्नेहभरा आँचल,
जहाँ दुःख-सुख में छिप जाऊँ।
कमी नहीं छतों की तुम्हारे पास,
यहाँ एक छाँव नहीं जहाँ एक पल ठहर पाऊँ।
तू वात्सल्य कि वाटिका,
प्रेम की उपवन।
यहाँ भाई निज,
भाई का है दुश्मन।
छिपी नहीं राज अश्रुऔं के,
रो-रो के क्या तुम्हें बताऊ माँ ?
ग्लानी गरल पीकर कैसे,
अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।
संजय कुमार निषाद
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