मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Monday, July 16, 2007

प्रार्थना

तन तेरी, मन तेरी।

और माँ यह जीवन तेरी।

है क्या मेरा जो करूं तुम्हें अर्पण ?

जो तेरा है, तुम्हें करूं कैसे समर्पण?


कली कुसुम की हार,

संगीत की मधुर झंकार।

विज्ञान लोक की अभिनव उपहार।

ग्रंथों कि हर अंकन तेरी।


हिमनद नालाऔं की नीर,

लघु-गुरू जड़ चेतन शरीर।

रजा-रंक और फकीर।

भू की कण-कण तेरी।


झंझाऔं की माया जाल,

विलासिता की महल विशाल।

तम प्रसारक और मशाल।

नृत्य की हर मंचन तेरी।


मैं ठहरा बिन्दु से भी लघु,

मेरी माँ फिर भी है तू।

सिवा तेरे और कहॉ जाऊं?

सहकर पीड़ घनेरी।










२ माँ

जाऊँ तो कहॉ जाऊँ माँ?

व्यथा अपनी किसे सुनाऊँ माँ ?

ग्लानी गरल पीकर कैसे?

अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।


देखकर मेरी हालत ऎसी,

कोई हँसते कोइ लजाते हैं।

यह जग तो हैं,मधुर मिलन हेतु,

मुझे तो निज भी दूर भगाते हैं।



स्वच्छंद विचरण हेतु तेरे,

निर्मित असीमित आहते हैं।

विकल हूँ एक पग बढ़ाने को,

मेरे पांवों मे बेड़ियाँ जकड़े हैं।


तेरी ममतामयी वह गोद

हृदय तो सागर से भी गहरे हैं।

यहाँ प्यार पाऊँ तो किसका?

सबके वाणी में विष घुले हैं।


तुम्हारी स्नेहभरा आँचल,

जहाँ दुःख-सुख में छिप जाऊँ।

कमी नहीं छतों की तुम्हारे पास,

यहाँ एक छाँव नहीं जहाँ एक पल ठहर पाऊँ।


तू वात्सल्य कि वाटिका,

प्रेम की उपवन।

यहाँ भाई निज,

भाई का है दुश्मन।


छिपी नहीं राज अश्रुऔं के,

रो-रो के क्या तुम्हें बताऊ माँ ?

ग्लानी गरल पीकर कैसे,

अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।

संजय कुमार निषाद

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