मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Tuesday, July 24, 2007

ग़ज़ल (२)

इस तरह मुस्कुरा कर नहीं सजा दीजिए,

जुर्म क्या है मेरा सरकार बता दीजिए।


इतने करीब रहके भी कितने दूर-दूर हैं,

इस फासला को एकबार मिटा दीजिए।


ये प्यार है, छलावा है या और कुछ,

आपको क़सम मेरी ये राज मुझे समझा दीजिए।


मेरा तो मंजिल आप है, शायद मैं आपका नहीं,

फुरसत मिले तो मेरे साथ भी चला कीजिये।


कितने खुशनसीब तो हैं, मुकद्दर जिनके साथ है,

आप भी मेरे उजड़े गुलशन में खिला कीजिये।


आपकी ये नजरें कितना कातिलाना लगता है,

डूब रहे है इश्क के दरिया में हमें बचा लीजिये।


मर्ज बढ़ता ही जा रह है करे क्या निषाद?

कुछ दवा दीजिए, कुछ दुवा कीजिये।

संजय कुमार निषाद

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