मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Monday, July 23, 2007

ग़ज़ल (१)

चारों तरफ हवा है कि हवा नहीं है।

ये मर्ज ऐसा है कि इसकी दवा नहीं है।


खुदकुशी कर रही हैं, रोज-रोज हजारों लडकियां ,

आशिकों की शिक़ायत है, उनके लिए महबूबा नहीं है।


उनके शह पर होती हैं क़त्ल चौराहों पर भी,

बडे मासूमियत से कह रहे हैं, उनका दबदबा नहीं है।


बच्चे भी होते तो छोड़ देते खेल इस आंख मिचौली का,

वे कब्र में पांव पसारकर कह रहे हैं, मन अभी उबा नहीं है।


बहा ले गयी सैलाब बस्ती के बस्ती,

वे कह रहे हैं, उनकी किश्ती अभी डूबा नहीं है।


थक गए लोग गालियाँ देते देते उनको,

वे मुस्कुराकर कह रहे हैं, लोग हमसे खफा नहीं हैं।


निज स्वार्थ के खातिर करते हैं सौदा, इज्जत और इमान का,

वे कहते हैं, राष्ट्रभक्ति है ये दगा नहीं है.


बद कौन नहीं है, बदनाम वे है जिन्होंने,

बदनामी से बचने का गुर सीखा नहीं है।


अँधेरे और उजाले में फ़र्क कितना रह गया है,

नासमझ वो है जिसने अँधेरे में चलना सीखा नहीं है।


मंदिर-मस्जिद सिर्फ नाम के है, निषाद,

सच पूछ कौन किसको कहॉ ठगा नहीं है.

संजय कुमार निषाद

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