मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Thursday, July 19, 2007

दौड़

जिन्दगी की इस दौड़ में कौन नहीं नजर आता है भागते हुए?

नाम, यश, माया के मोह में नर्तकों सा नाचते हुए।


खाली गोदाम हो गई तोड़ दिये दम हजारों भूख से तड़पते हुए,

नाम जिस पर करोड़ों का लिखा था, चंद लोगों के नास्ते हुए।


बड़ी मुश्किल से बनाए थे उनको दुःख दर्द अपनी बांटने के लिए,

दिखाई दिए वे एक दिन ऑपरेशन चक्रव्यूह में कमीशन पकड़ते हुए।


चलती थी भीड़ जिनके पीछे भेड़ की तरह एक इशारे पर,

थका नहीं वी कभी दल, कुर्सी ईमान और उसूल बदलते हुए।


कहते हैं लोग वे आतंकवादी , कट्टरपंथी और मानवता का दुश्मन था,

देखा था हमने जिसको अहिंसा के पुजारी के घर कल पनाह लेते हुए।


पंडित, मौलवी और फ़ादर थक गाए फैसला हो न सका ख़ून किसका था ,

बम विस्फोट के बाद देखा जो उनहोंने ख़ून इन्सान का बहते हुये।


हंसते हैं लोग जिस पर वेवकूफ पागल समझकर, बडे समझदार निकले,

उनके पाचनतंत्र कमाल था, उफ तक नहीं बोले जानवरों का चारा निगलते हुए।


सती-सावित्री तक की चरित्र की अभिनय की उनहोंने चलचित्र में,

देखा था हमने जिनको मंच पर अन्तःवस्त्र हटाते-बदलते हुए।


भक्तों की लगती थी लंबी कतार जिनकी चरनामृत पाने के लिए,

पकड़ाये वही अपने सेवक के गले पर चाकू रगड़ते हुए।


देश के भाग्य विधाता, कानून निर्माता वे हैं,

समय बिताते हैं जो संसद में बंदरों सा झगड़ते हुए।


किसे सुनाये हम कौन सुनेगा हमारा,

अब तो आदत सी हो गई है, ये सब सहते हुए।


ये समय का चक्र है किसने देखा है इसको ठहरते हुए,

नासमझ था निषाद उम्र गुजर दी ईमान के खाली कनस्तर पकड़ते हुए।

संजय कुमार निषाद

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