मंजिल तो पाना है।
शिखर पर जाना है।
चाहे कुछ भी हो जाये,
खुद से किये वादा निभाना है।
संजय कुमार निषाद
Tuesday, July 24, 2007
ग़ज़ल (३)
आपका आना कितना खुशगवार लगता है,
पर इस तरह छोड़कर जाते क्यों हैं?
हम भी मोहब्बत कम नहीं करते,
आप इस तरह प्यार जताते क्यों हैं?
आपको भी कुछ पाने की तमन्ना है,
हमे इस तरह तरसाते क्यों हैं?
हमने दिल लगाया गलती नहीं की,
मुझे देखकर इस तरह मुस्कुराते क्यों है?
आंखों से कह दिए सब कुछ आपने,
ओठ खोलने में शरमाते क्यों हैं?
मेरी जिन्दगी में बहार लाया आपने,
अब आग लगाकर दिल जलाते क्यों हैं?
पल गुजरता है सौ साल की मानिंद,
आप इस तरह मुझे भूल जाते क्यों हैं?
हमें आपसे कोई शिकवा नहीं है,
आपको गिला है निषाद तो छुपाते क्यों हैं?
संजय कुमार निषाद
ग़ज़ल (२)
इस तरह मुस्कुरा कर नहीं सजा दीजिए,
जुर्म क्या है मेरा सरकार बता दीजिए।
इतने करीब रहके भी कितने दूर-दूर हैं,
इस फासला को एकबार मिटा दीजिए।
ये प्यार है, छलावा है या और कुछ,
आपको क़सम मेरी ये राज मुझे समझा दीजिए।
मेरा तो मंजिल आप है, शायद मैं आपका नहीं,
फुरसत मिले तो मेरे साथ भी चला कीजिये।
कितने खुशनसीब तो हैं, मुकद्दर जिनके साथ है,
आप भी मेरे उजड़े गुलशन में खिला कीजिये।
आपकी ये नजरें कितना कातिलाना लगता है,
डूब रहे है इश्क के दरिया में हमें बचा लीजिये।
मर्ज बढ़ता ही जा रह है करे क्या निषाद?
कुछ दवा दीजिए, कुछ दुवा कीजिये।
संजय कुमार निषाद
Monday, July 23, 2007
ग़ज़ल (१)
चारों तरफ हवा है कि हवा नहीं है।
ये मर्ज ऐसा है कि इसकी दवा नहीं है।
खुदकुशी कर रही हैं, रोज-रोज हजारों लडकियां ,
आशिकों की शिक़ायत है, उनके लिए महबूबा नहीं है।
उनके शह पर होती हैं क़त्ल चौराहों पर भी,
बडे मासूमियत से कह रहे हैं, उनका दबदबा नहीं है।
बच्चे भी होते तो छोड़ देते खेल इस आंख मिचौली का,
वे कब्र में पांव पसारकर कह रहे हैं, मन अभी उबा नहीं है।
बहा ले गयी सैलाब बस्ती के बस्ती,
वे कह रहे हैं, उनकी किश्ती अभी डूबा नहीं है।
थक गए लोग गालियाँ देते देते उनको,
वे मुस्कुराकर कह रहे हैं, लोग हमसे खफा नहीं हैं।
निज स्वार्थ के खातिर करते हैं सौदा, इज्जत और इमान का,
वे कहते हैं, राष्ट्रभक्ति है ये दगा नहीं है.
बद कौन नहीं है, बदनाम वे है जिन्होंने,
बदनामी से बचने का गुर सीखा नहीं है।
अँधेरे और उजाले में फ़र्क कितना रह गया है,
नासमझ वो है जिसने अँधेरे में चलना सीखा नहीं है।
मंदिर-मस्जिद सिर्फ नाम के है, निषाद,
सच पूछ कौन किसको कहॉ ठगा नहीं है.
संजय कुमार निषाद
मेरी अभिलाषा
हर घर में दीप जले,
हर उपवन में फूल खिले।
भूलकर गिले शिकवे,
आपस में सब गले मिले।
मेरी अभिलाषा है।
जाति धर्म के लिए न कोई लड़े,
सीमा सरहद पर न बहे ख़ून.
न उजड़े मांग किसी का,
न किसी का हो गोद सून.
मंदिर- मस्जिद न टूटे,
न हो सांप्रदायिक तनाव।
भाई-भाई का दुश्मन न हो,
सबके ह्रदय में हो प्रेम भाव।
मेरी अभिलाषा है।
भू न बँटे लकीरों से,
बिहागों सा सबका हो घर-बार।
पूरब-पश्चिम का भेड़ न हो,
सब करे आपस में प्यार।
मेरी अभिलाषा है।
स्वच्छंद विचरण करे बिहगों सा नभ में,
रोक-टोक न हो जग में।
मुक्त हस्त से बाँटे सब धन धान्य,
डूबे न कोई कभी आलस्य प्रमाद में।
मेरी अभिलाषा है।
दूध के लिए न कोई बच्चा रोये,
रोटी के लिए न करे कोई देह व्यापार।
भयमुक्त हो सारा विश्व,
निर्बलों,असहायों पर न हो अत्याचार।
मेरी अभिलाषा है।
संजय कुमार निषाद
Thursday, July 19, 2007
दौड़
जिन्दगी की इस दौड़ में कौन नहीं नजर आता है भागते हुए?
नाम, यश, माया के मोह में नर्तकों सा नाचते हुए।
खाली गोदाम हो गई तोड़ दिये दम हजारों भूख से तड़पते हुए,
नाम जिस पर करोड़ों का लिखा था, चंद लोगों के नास्ते हुए।
बड़ी मुश्किल से बनाए थे उनको दुःख दर्द अपनी बांटने के लिए,
दिखाई दिए वे एक दिन ऑपरेशन चक्रव्यूह में कमीशन पकड़ते हुए।
चलती थी भीड़ जिनके पीछे भेड़ की तरह एक इशारे पर,
थका नहीं वी कभी दल, कुर्सी ईमान और उसूल बदलते हुए।
कहते हैं लोग वे आतंकवादी , कट्टरपंथी और मानवता का दुश्मन था,
देखा था हमने जिसको अहिंसा के पुजारी के घर कल पनाह लेते हुए।
पंडित, मौलवी और फ़ादर थक गाए फैसला हो न सका ख़ून किसका था ,
बम विस्फोट के बाद देखा जो उनहोंने ख़ून इन्सान का बहते हुये।
हंसते हैं लोग जिस पर वेवकूफ पागल समझकर, बडे समझदार निकले,
उनके पाचनतंत्र कमाल था, उफ तक नहीं बोले जानवरों का चारा निगलते हुए।
सती-सावित्री तक की चरित्र की अभिनय की उनहोंने चलचित्र में,
देखा था हमने जिनको मंच पर अन्तःवस्त्र हटाते-बदलते हुए।
भक्तों की लगती थी लंबी कतार जिनकी चरनामृत पाने के लिए,
पकड़ाये वही अपने सेवक के गले पर चाकू रगड़ते हुए।
देश के भाग्य विधाता, कानून निर्माता वे हैं,
समय बिताते हैं जो संसद में बंदरों सा झगड़ते हुए।
किसे सुनाये हम कौन सुनेगा हमारा,
अब तो आदत सी हो गई है, ये सब सहते हुए।
ये समय का चक्र है किसने देखा है इसको ठहरते हुए,
नासमझ था निषाद उम्र गुजर दी ईमान के खाली कनस्तर पकड़ते हुए।
संजय कुमार निषाद
Tuesday, July 17, 2007
हमें न चाँद चाहिए, न चमन चाहिए।
हमें न चाँद चाहिए , न चमन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
पड़ोसियों के ताप से कश्मीर पिघल रहा है।
स्वच्छंदता के लिए असाम , नागालैंड मचल रहा है।
आपसी वैमनस्यता की खाई में,
बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र जल रहा है।
बुझाए जो इन ज्वालाओं को हमें वह तेज पवन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
आतंकवाद, अलगाववाद बढ़ता जा रहा है।
पडोसी नित नए नए कारनामें गढ़ता जा रहा है।
न्याय नीति की सीमा लांघकर हमें बाँधने को,
वेशर्मों की तरह दोष हमपर मढ़ता जा रहा है।
हमे बाँधने को यह छुद्र नीति नहीं मित्रता की पवित्र बन्धन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
मस्जिद में न सिसके अल्लाह ,
मंदिर में न रोये ईश्वर।
प्रेम सहिस्नुता, भाईचारा के लिए,
सलीब पर न फिर चढ़े गिर्जेवाले परमेश्वर।
हमें भय भेदभाव मुक्त सुंदर स्वच्छ वतन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
इंच भर जमीन के खातिर लड़े न सीमा पर भाई हमारा।
उजड़े न किसी की मांग, सूना हो ना किसी का गोद।
असहाय , निर्बलों शोषितों का ख़ून पीकर,
उनके कब्र पर अट्टालिका बनाकर ना कोई करे मनोविनोद।
किसी कली को मसले न कोई, हमें वह उपवन चाहिए।
हमें अपने ही घर में अमन चाहिए।
संजय कुमार निषाद
विश्व गुरू व्यास के प्रति
प्रति वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा को तुम्हारी याद लिए।
आसमान में बदल उमड़ आते हैं।
श्रद्धा - सुमन तुम्हें अर्पित करने को,
वर्षा की कुछ बूंदे झड़ जाते हैं।
मानव ही नहीं प्रकृति भी,
तुम्हारे वियोग से विक्षिप्त हैं।
नेत्रों से गिर रहे हैं बूंदे अश्कों के,
सबका हृदय आज द्रवित हैं।
युग -युग का पथ प्रदर्शक,
तू तिमिर विनाशी अमर-उजाला।
सनातन धर्मं के प्रबल पुरोधा,
तू मानवता के निर्भीक रखवाला।
तू वो मानव नहीं जो आकर,
अट्टलिकाऔं में विखर गए।
तू कुछ असाधारण करने हेतु,
देवों सा कण-कण में ठहर गए।
हाथी- घोड़ों के नहीं,
मानव चेतना के रथ पर चढा।
खोलने अज्ञानता का दुर्ग।
सबसे पहले तू ही आगे बढ़ा।
तू प्रभात की प्रथम किरण बन,
सदियों से सुप्त मानव को जगाया।
पल्लवित करने जीर्ण शीर्ण काया को,
ओस की बूंदे बन भू पर आया।
तू सागर की लहर बन,
अस्पृश्यता के तट से टकराया।
हम सब मानव एक ही पिता के पुत्र हैं,
यह संदेश जन-जन तक पहुंचाया।
संजय कुमार निषाद
Monday, July 16, 2007
प्रार्थना
तन तेरी, मन तेरी।
और माँ यह जीवन तेरी।
है क्या मेरा जो करूं तुम्हें अर्पण ?
जो तेरा है, तुम्हें करूं कैसे समर्पण?
कली कुसुम की हार,
संगीत की मधुर झंकार।
विज्ञान लोक की अभिनव उपहार।
ग्रंथों कि हर अंकन तेरी।
हिमनद नालाऔं की नीर,
लघु-गुरू जड़ चेतन शरीर।
रजा-रंक और फकीर।
भू की कण-कण तेरी।
झंझाऔं की माया जाल,
विलासिता की महल विशाल।
तम प्रसारक और मशाल।
नृत्य की हर मंचन तेरी।
मैं ठहरा बिन्दु से भी लघु,
मेरी माँ फिर भी है तू।
सिवा तेरे और कहॉ जाऊं?
सहकर पीड़ घनेरी।
२ माँ
जाऊँ तो कहॉ जाऊँ माँ?
व्यथा अपनी किसे सुनाऊँ माँ ?
ग्लानी गरल पीकर कैसे?
अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।
देखकर मेरी हालत ऎसी,
कोई हँसते कोइ लजाते हैं।
यह जग तो हैं,मधुर मिलन हेतु,
मुझे तो निज भी दूर भगाते हैं।
स्वच्छंद विचरण हेतु तेरे,
निर्मित असीमित आहते हैं।
विकल हूँ एक पग बढ़ाने को,
मेरे पांवों मे बेड़ियाँ जकड़े हैं।
तेरी ममतामयी वह गोद
हृदय तो सागर से भी गहरे हैं।
यहाँ प्यार पाऊँ तो किसका?
सबके वाणी में विष घुले हैं।
तुम्हारी स्नेहभरा आँचल,
जहाँ दुःख-सुख में छिप जाऊँ।
कमी नहीं छतों की तुम्हारे पास,
यहाँ एक छाँव नहीं जहाँ एक पल ठहर पाऊँ।
तू वात्सल्य कि वाटिका,
प्रेम की उपवन।
यहाँ भाई निज,
भाई का है दुश्मन।
छिपी नहीं राज अश्रुऔं के,
रो-रो के क्या तुम्हें बताऊ माँ ?
ग्लानी गरल पीकर कैसे,
अरमानों की प्यास बुझाऊँ माँ।
संजय कुमार निषाद
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