मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Thursday, April 10, 2008

अध्यात्म और नक्सली हिंसा

‘अध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर जी महाराज कहते हैं- ‘नक्सली अपने ही लोग हैं। उन्हें प्यार से समझाने की जरूरत है। उनके साथ पूरी संवेदनशीलता से बात करनी चाहिए। हम सब उसी दिशा में काम कर हे हैं। प्रेम वह तत्व है जो हमें तमाम समस्याओं से छुटकारा दिला सकता है। हम जीना भूल गये हैं। हमें जीने की कला आना चाहिए। ‘आर्ट आॅफ लीविंग’ अगर हम जान लेते हैं, तो फिर परेशान होने की कोई बात नहीं है। तब हम न झगड़ेंगे, न तनाव होगा। वैसे तो ये बातें बहुत अच्छी लगती है। तो क्या जीने की कला से नक्सली समस्या का समाधान हो जाएगा? अध्यात्मिक गुरू धर्म को सब कुछ मानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि भारत में ज्यादातर परेशानियाँ धर्म के कारण उत्पन्न हुई है। हमारे धर्म में वर्णवाद, जातिवाद है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। वर्णवाद और जातिवाद के कारण हमेशा भेदभाव होता रहा है, फलस्वरूप एक बड़े समूह के साथ अन्याय अत्याचार होते रहा है। आज भारत एक लोकतांत्रिक देश है। आजादी के 60 वर्ष पूरे कर चुके हैं, लेकिन आम चुनाव में विकास का मुद्दा कम, जातिवाद ज्यादा होता है। जातिवाद के कारण ही राजनेता समाज को गुमराह कर चुनाव में जीतने में सफल हो जाता है। तो क्या यह दोष नहीं है? अगर धर्म वर्ण और जाति के आधार पर अनुयायियों में भेदभाव नहीं करता तो आज भारत में कई परेशानियाँ नहीं होती। सामाजिक परेशानी के रूप में दहेज प्रथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसके फलस्वरूप भ्रूण हत्या जैसे घृणित कार्य का जन्म हुआ। समाज में महिलाओं का कम महत्व होना इसका ही दोषपूर्ण प्रतिफल है। जातीय आधार पर आरक्षण की आवश्यकता शायद धर्म के द्वारा मानवों में किये गये भेद एवं तत्पश्चात सबल समूह द्वारा निर्बल समूह पर किये गये शोषण का ही परिणाम है।


धर्म समाज के लिए सर्वथा अहितकारी होती है, ऐसा भी नहीं है। इसके सकारात्मक पक्ष भी होते भी वर्तमान स्वरूप जो युगों-युगों से चला आ रहा है, मेंं कुछ परिवर्तन की आवश्यकता थी। दुर्भाग्यवश हमारे पथ-प्रदर्शक एवं धर्म गुरूओं को इसकी आवश्यकता क्यों नहीं महशुश हुई या हो रही है ये वे ही जानें। कहा जाता है परिवर्तन संसार का नियम है, लेकिन हमारे सनातन धर्मगुरूओं को इसकी आवश्यकता कभी महशूश नहीं हुई। वर्णा सनातन धर्म से विभाजित होकर बुद्ध, जैन एवं सिख धर्म का उद्भव नहीं होता। अगर सनातन धर्म में ही आवश्यक संशोधन किया जाता जो समय एवं समाज के लिए हितकर होता। अगर वर्ण एवं जाति के नाम पर देश खंडित हो रहा है। धार्मिक एकता का महत्व कहीं-न-कहीं राष्ट्रीय एकता के लिए आवयक है।


सनातन धर्म में धर्मगुरूओं की कभी कमी नहीं रही, लेकिन जरा सोचिये उन्होंने समाज को क्या दिये एवं समाज से क्या लिये? ऐशो-आराम की जिंदगी जीकर बड़े-बड़े मंच से प्रवचन करना ही धर्म की वास्तविक व्याख्या करना है? धर्म को केवल अर्थ से जोड़कर धर्मिक चेतना नहीं लायी जा सकती है। हमारे देश पर अगर विदेशी सत्ता कायम हुई थी तो उसका एक कारण यह भी था कि हमारे यहाँ धार्मिक एकता नहीं थी? वर्गो, वर्णाे में बँटा हमारा समाज तब भी कमजोर था और आज भी है।


नक्सली “आर्ट आॅफ लीविंग“ कैसे सीखेंगे? क्या आर्ट आॅफ लीविंग में भूखे-नंगे रहकर जींदा रहने का कोई कला है? अगर हाँ तो इससे नक्सली को अवश्य फायदा होगा? वे भूखे-नंगे रहकर जीने की कला सीख जायेंगे तब सरकार से उनकी कोई शिकायत ही नहीं रहेगी। वे अपने-आप समाज के मुख्यधारा में जुट जायेंगे, हथियार फेंक कर। क्योंकि उनकी शिकायत तो सरकार से है। सरकार आजादी के 60 साल बाद भी उनके लिए कुछ नहीं कर पायी, न पानी, न बिजली, न शिक्षा, न स्वाथ्य की व्यवस्था उनके लिए है तो भला वे सरकार को क्यों मानें? देश समाज से उपेक्षित रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्षरत वे लोग जिनकी आवाज सरकार नहीं सुनती हैं, ही तो हथियार उठाकर शासन को अपनी आवाज सुना रहे हैं या वर्तमान शासन व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। शायद उनका यह रास्ता आज के सभ्य समाज के लिए अच्छी नहीं माना जा सकता, लेकिन दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं दिखाती वर्तमान शासन व्यवस्था।


जिस इलाके के जमीन में सोना-हीरा है वहाँ के बसिंदे भूखे-नंगे हैं। एक वक्त की रोटी के लिए अपनी इज्जत तक बेच देते हैं, तो वे सरकार को क्यो मानें? बड़-बड़े उद्योग स्थापित करने के लिए किसान-मजदूर को उजाड़े जा रहे हैं। उनकी विस्थापन एवं रोजी-रोटी का समुचित व्यवस्था नहीं हो पा रहा है। आखिर कमजोर वर्ग करे तो क्या करे?


धर्मगुरूओं को भी दौलत की भूख है मंदिरों में चढ़ाये जाने वाले करोड़ों का चढ़ावा का उपयोग अगर कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए लगाया जाता तो आज भारत में गरीबी, अशिक्षा नहीं होती। जहाँ अन्य धर्मो का इस ओर सकारात्मक प्रयास किया जा रहा है, वहाँ सनातन धर्मी युगों से निष्क्रिय है। पहले रोटी और रोजगार चाहिए, जीने की कला किसी को सिखयी नहीं जा सकती है, यह तो प्रकृति प्रदत्त है। पृथ्वी के अन्य प्राणी जो इस संबंध में कहीं से शिक्षा ग्रहण नहीं करते मानव से कहीं ज्यादा सुखी रहते है। जीने की कला उन्हें सिखाया जा रहा है, जिन्हें जीने का सारा साधन उपलब्ध है। जीने की कला क्या उन्हें भी सिखाया जा सकता है जो साधनहीन है?

No comments: