माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग को उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने के सरकार के फैसले को हरी झंडी दिखा दी गई । इससे सरकार एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के वे सदस्य जो क्रीमी लेयर के अंतर्गत नहीं आते है, अवश्य खुश है, लेकिन क्रीमी लेयर के अंतर्गत आने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग अपने लिए भी आरक्षण सुनिश्चित करने की मांग कर रहे हैं एवं उच्च वर्ग पूर्व की भांति इसका विरोध कर रहे है। अब सवाल उठता है क्या इससे सामाजिक न्याय मिलेगा जैसा सरकार कह रही है ? या सामाजिक विकास होगा जो अपेक्षित हैं ? क्या उच्च शिक्षण संस्थानों में क्रीमी लेयर के अन्तर्गत नहीं आने वालों को आरक्षण देने से पिछड़ा समाज सामाजिक न्याय पाकर अगड़े समाज की बराबरी कर पायेगा ? क्या इस स्तर पर आरक्षण देना उचित एवं तर्कसंगत है ? समाजिक न्याय एवं सामाजिक विकास दोनों साथ-साथ हो सकते है ? इन बातों पर चर्चा करने के पहले हम संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर का सामाजिक हालत पर दिये गये विचार पर गौर करते हैं
--------------------------------------------------------------
हिन्दुस्तान देश के माने हैं-विषमता । हिन्दू समाज उसकी मिनार है । अनेक जातियां उसकी मंजिलें है । लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस मिनार में कोई सीढ़ी नहीं लगी है । एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक जाने के लिए उसमें मार्ग नहीं रखा गया है । जिस मंजिल में जो जन्मे उसी मंजिल में वह मरे । नीचे का मंजिल में जन्मा व्यक्ति चाहे वह कितना ही लायक क्यों न हो उसे उपरवाली मंजिल में प्रवेश नहीं मिलेगा और उपर की मंजिल में जन्मा व्यक्ति चाहे वह कितना भी नालायक क्यों न हो, उसे नीचे की मंजिल पर ढकेलने का साहस किसी में नहीं है ।
------------------------------------------------------------
1920 में कही गयी ये बातें आज भी उतनी ही सच है, जितनी उस समय थी ।
सामाजिक न्याय एवं सामाजिक विकास में चैली दामन का संबंध है । सरकार सामाजिक विकास की अनदेखी कर सामाजिक न्याय की बात कर रही है । सरकार का मानना भी है आरक्षण सामाजिक विकास का अस्त्र नहीं है । देश की उन्नति के लिए एवं आपसी एकता के लिए सामाजिक विकास जरूरी है । विकास के साथ सामाजिक न्याय अपने आप मिल जायेगा, लेकिन सामाजिक न्याय के रथ पर चढ़कर सामाजिक विकास तक पहुंचना मुश्किल ही नहीं असंभव है । भारत को सबल राष्ट्र बनाने के लिए हर नागरिक को समान धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार मिलना चाहिए सबको विकास के समान अवसर मिलना चाहिए ।
अगर सामाजिक न्याय की बात करते है तो सबसे पहले जाति प्रथा को समाप्त करना चाहिए । इसके लिए सरकार एवं विकसित समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा । इसमें साहस एवं धैर्य की आवश्यकता है। जब तक जाति प्रथा कायम रहेगी तब तक सामाजिक न्याय की बात करना बईमानी होगी ।
बाबा साहब अंबेडकर की इच्छा थी कि जाति प्रथा समाप्त हो लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रबल विरोध के कारण जातिप्रथा उन्मूलन का कार्यक्रम चलाने के बजाय कांग्रेस अछूतोद्धार को अपना कार्यक्रम बनाया।
गांधी जी का मानना था जातिप्रथा को नष्ट कर देना गलत है । इससे हमारी पूरी व्यवस्था ही नष्ट हो जायेगी । वे अन्तर्जातीय भोज एवं अन्तर्जातीय विवाह के भी प्रबल विरोधी थे । परिणाम सबके सामने है । बाबा साहब जातीय आधार पर आरक्षण के हमेशा विरोध करते थे । वे सामाजिक न्याय को विकास के साथ जोड़ना चाहते थे, जिसके लिए जातिप्रथा समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक था । लेकिन दुर्भाग्यवश वे कामयाब नहीं हुए और खुद उनको ही धर्मान्तरण करना पड़ा ।
अब यह सिद्ध हो चुका है कि जातीय आधार पर आरक्षण देने से सामाजिक विकास नहीं हो सकता एवं सामाजिक न्याय तभी मिलेगा जब सामाजिक विकास होगा । आज अगड़ों द्वारा भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग किया जा रहा है । अगर हमारे देश के राजनेता, धर्मगुरू एवं अगड़ा-पिछड़ा समाज के शुभचिंतक प्रबुद्ध जन मिलकर जाति प्रथा समाप्त कर आर्थिक आधार पर आरक्षण जिस पर सभी सहमत हांेगे की पहल करें तो सामाजिक न्याय के साथ-साथ सामाजिक विकास भी हासिल किया जा सकता है । वर्णा जिस प्रकार हमारी स्थिति आजादी के 60 वर्ष बाद है उसी प्रकार 600 वर्ष बाद होगी । हमारी आने वाली पीढ़ी भी जातपात के चक्कर में पिसते रहेंगे एवं सामाजिक न्याय के लिए लड़ते रहेंगे । एक न समाप्त होने वाली सिलसिला चलता रहेगा । अभी वक्त है इस पर विचार किया जा सकता है ।
हमारा मूल मकसद इस लेख का शीर्षक अंत से शुरूआत पर भी विचार करना है। जरा सोचिये सरकार अन्य पिछड़े वर्ग जो क्रीमी लेयर के अंतर्गत् नहीं आता है को उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देकर सामाजिक न्याय लाना चाहती है। क्या यह तकनीकी रूप में संभव है ? जरा विचार कीजियेः-
1. अन्य पिछड़े वर्ग जिनकी पूरे परिवार की वार्षिक आय 2.5 लाख रूपये से कम हो, क्रीमी लेयर के अंदर नहीं आते हैं।
2. एक परिवार में कुल सदस्यों की कम से कम संख्या 4 से कम नहीं होती है। लेकिन पिछड़े वर्ग में ऐसे परिवार कम ही मिलेंगे।
3. उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्ययन के लिए सालाना खर्च 1.5 -2 लाख से कम नहीं होते।
4. क्या 2.5 रूपये वार्षिक आय वाले परिवार सिर्फ एक बच्चे का पढ़ाई का खर्च 1.5-2 लाख रूपये दे सकेंगे। अगर हाँ तो परिवार के बाँकी सदस्य क्या खायेंगे? अतः इन संस्थानों में ऐसे परिवार के लिए अपने बच्चों को पढ़ाना संभव ही नहीं है।
5. अभी भी सरकार के मंत्रालयों@कार्यालयों में हरिजन, आदिवासी एवं अन्य पिछड़ा वर्गो के आरक्षित पद खाली पड़े हैं। इसके लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिलता है।
तो क्या सरकार की यह कोशिश अंत से शुरूआत करना नहीं है। अगर आप सामाजिक न्याय लाना चाहते है तो सबसे पहले सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षण संस्थानों की व्यवस्था कीजिये। वहाँ उसकी सहायता इमानदारीपूर्वक कर उसे इस योग्य बनाइये कि वे उच्च शिक्षा पाने लायक बने। आज भी गरीब, पिछड़े,हरिजन,आदिवासी बहुल क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों की कमी है। कुछ क्षेत्रों में तो हैं भी नहीं। पहले तो सबको प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराइये। आज भी आदिवासी हरिजन बहुल क्षेत्रों में शिक्षण व्यवस्था सरकार नहीं बल्कि मिशनरीवाले के कृपा से चल रही है, हालांकि इस व्यवस्था पर कथित हिन्दूवादी संगठनों एवं सरकार को आपत्ति भी है। लेकिन चिंता नहीं है, वर्णा जहाँ मिशनरीवाले विद्यालय स्थापित कर सकते हैं वहाँ सरकार भी शिक्षा का इंतजाम कर सकती है। सरकार का काम आरक्षण देना भर नहीं है। आरक्षण...आरक्षण के नाम पर सरकार बनती है, गिरती है। क्या गरीब अशिक्षित हरिजन, आदिवासी, अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण से कोई फायदा है। वे आरक्षण लेकर क्या करेंगे ? आरक्षण वोट का जरिया हो सकता है, रोटी का नहीं। वोट चाहिए तो आरक्षण का झुनझुना थमा दिजिये। जनता लड़ती रहेगी आपस में । इसे आप सामाजिक न्याय कह दिजिये। सामाजिक न्याय के नाम पर कभी पिछड़े का घर, कारोबार, वाहन जलाइये तो कभी अगड़े का तो कभी दोनों मिलकर सरकारी संपत्ति को स्वाहा किजिये। क्या यह सामाजिक न्याय नहीं होगा ?
सरकार के मंत्रालयों एवं कार्यालयों में आरक्षित पदों का खाली रहने का भी वजह यही है। नौकरी एक युवा का अंतिम पड़ाव होता है, वह शुरूआत नहीं है। आप वहाँ उसे आरक्षण दे रहे हैं। अगर सचमुच में आप सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो सबसे पहले पिछड़े, हरिजन, आदिवासी बहुल क्षेत्रों में प्राथमिक , माध्यमिक विद्यालयों एवं महाविद्यालय का पुख्ता इंतजाम कीजिये। साथ ही उनके परिजनों लिए वहाँ रोजगार सृजित कीजिये ताकि उसकी पढ़ाई बाधित न हो। शुरूआत अच्छी होगी तो हो सकता है अंत में आरक्षण की आवश्यकता भी न पड़े। कमजोर नींव पर बनी ईमारत पर चाहे बेशकीमती टाईल्स लगा दीजिये भूकम्प में गिरने का खतरा बना रहेगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सरकार अंम से शुरूआत करने की कोशिश कर रही है। अगर शुरू से शुरूआत करने का प्रयास किया जाता तो सचमुच सामाजिक न्याय होता। जिससे सामाजिक विकास होता ओर कई समस्या, विषमताएँ स्वतः समाप्त हो जाती। लेकिन सरकार विवश है क्या करे कुर्सी की चिंता तो रहती ही है।
1 comment:
संजय भाई, सच कहा आपने कि आरक्षण वोट का जरिया हो सकता है, रोटी का नहीं।
Post a Comment