किदवन्ती है लोहा पारसस्पर्श से स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। चाहे इसमें सच्चाई किचिंत मात्र न हो, लेकिन इतना तो तय है कि सत्संगति से साधारण व्यक्ति भी महान बन जाते हैं। साधुजनों की संगति अत्यन्त लाभदायक होता है। इसके विपरीत कुसंगति से व्यक्ति को हानि ही हानि होती है। मानव का यह नैसर्गिक गुण होता है अच्छाई ग्रहण करने में वर्षों लग जाता है, लेकिन बुराई सीखने के लिए पल भर ही काफी हो जाता है।
निषाद समाज वर्षों से संघर्षरत है, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। आखिर इसका कारण क्या है? उपजाति, कुरी, गौत्र के भेदभाव को मिटाने हेतु चलाये जा रहे आन्दोलन को कई दशक पूरे होने को है, लेकिन भेदभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें कहीं न कहीं दोष हम सबका है। समाजसेवी आन्दोलनकारी कोई कार्यक्रम, सभा सम्मेलन आयोजित करते हैं या कोई पत्र—पत्रिकाओं का प्रकाशन करते हैं। इसमें उन्हें समाज की ओर से सहयोग भी मिलता है, लेकिन सारा मेहनत व्यर्थ चला जाता है। आखिर गलती कहाँ होती है? अगर इस विषय पर विचार करें तो कारण का पता बिल्कुल आसान से चल जायेगा कि निषाद समाज के प्रत्येक उपजाति, कुरी या गौत्र में कुछ ऐसे बंधु हैं जिन्हें समाज से कुछ लेना देना नहीं हैं, समाज हित में उनका योगदान नगण्य रहता है ,लेकिन सामाजिक संगठनों को तोड़ने में सभाओं को असफल बनाने में , सामाजिक कार्यकत्ताओं की आलोचना करने में उनका मानेबल गिराने में वे तन, मन और धन से भरपूर योगदान देते हैं। यूँ कहिये कि वे मीन—मेख निकालने में ही जीवन बिता रहे हैं। इस तरह के समाज के आत्मघाती लोगों की संख्या धीरे—धीरे बढ़ती ही जा रही है। अत: सामाजिक कार्यकत्ताओं के लिए आवश्यक है कि ऐसी सड़ी मछली को तालाब से बाहर निकल फेंके ताकि तालाब स्वच्छ रहे।
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