मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Thursday, March 3, 2016

समाजोत्थान में महिलाओं की भूमिका


विश्व एक महान परिवर्त्तन के दौर से गुजर रहा है। अनेक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्त्तन हो रहा है। परतंत्र देश स्वतंत्र होना चाहता है, स्वतंत्र देश की जनता वहाँ लोकतंत्र को मजबुत करना चाहती है। प्रत्येक आदमी अपना नैसर्गिक अधिकार पाना चाहता है।परिवर्त्तनों के इस महान दौर में जो मुख्य परिवर्त्तन हो रहा है, वह है महिलाओं का घर से बाहर आना। विश्व के लगभग सभी देशों में महिलाओं द्वारा अपने अधिकारों की माँग बहुत जोर शोर से किया जाने लगा है। भारतसहित अन्य देशों में तो महिला आरक्षण की बात भी चल रही है। वे सभी क्षेत्रों में बराबरी का हिस्सा मांग कर रही हैं। मांग और अधिकार की बात छोड़ भी दिया जाये तो भी विश्व के अनेक महिलाएँ अपनी योग्यता के बल पर शीर्षस्थ पदों पर आसीन हैं। कई महिलाओं की कार्यों से तो विश्व गौरान्वित है और आश्चर्यचकित भी। शैक्षणिक, सांस्कृति, राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्रों में भी कई महिलाएँ पुरूषों को मात दे रही है। 

 

हम सभी जानते हैं कि गृहस्थीरूपी गाड़ी की दो पहिए होते हैं, पुरूष और नारी। अगर किसी गाड़ी की एक पहिआ कमजोर रहे तो दुर्घटना की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन सदियों से भारतसहित अन्य कई देशों में महिलाओं को जिस रूप में देखा गया उन्हें घर के अंदर जिस प्रकार कैद कर रखा गया सोचनीय एवं लज्जाजनक तो है ही साथ ही देश के पिछड़ने का मूल कारण भी है। जब तक भारत में महिलाओं का उचित सम्मान दिया जाता था, तब तक देश प्रगति के शिखर पर था। जबसे इनके महत्व को नकारा गया तबसे देश पिछडता गया।


वास्तव में अगर देखा जाये तो महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कम नहीं हैं अगर उन्हें उचित अवसर दिया जाय तो वे पुरूषों को भी पीछे छोड़ देगी। कई देशों के शासनाध्यक्ष, राजनैतिक दलों के नेत्री, सरकारी सेवा में शीर्षस्थ पदों पर महिलाओं का आसीन होना और कुशलता से अपने पदों का निर्वाह करना इसका प्रमाण है। निषाद समाज में महिलाओं की स्थिति चिंताजनक एवं दयनीय है। पुरूषों का मद्यपान, जुआ जैसे दुर्व्यसनों में लिप्त रहना, घर में आर्थिक बदहाली होना, अधिक बच्चों का लालन—पालन अनके जिम्मा होना उनके जीवन को नरकमय बना देता है। इन सबों के बावजूद भी वे कुछ नहीं कर पाती है। आखिर करें तो क्या करे? न वे आर्थिक रूप से समृद्ध है, न शिक्षित है न ही उन्हें किसी का सहयोग मिल रहा है। समस्या काफी गंभीर है लेकिन असंभव नहीं है।


अगर निषाद समाज की महिलाएँ चाहें तो समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देकर परिवार ओर समाज को समृद्ध बना सकती हैं। सर्वप्रथम समाज को शिक्षित माँ—बहनों को आगे आना होगा। उन्हें दृढ़संकल्प के साथ समाजोत्थान हेतु अपना योगदान देना होगा। अगर वे चाहें तो अपने व्यस्त दिनचर्या से थोड़ा सा वक्त निकालकर अड़ोस—पड़ोस के अशिक्षित माँ—बहनों को आधुनिक विचारों से अवगत करा सकती है। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, अंधभक्ति और समाजिक कुरीतियों को मिटा सकती है। इसके लिए सबसे पहले उन्हें परिवार नियोजन के बारें में सबको समझाना होगा। अशिक्षित महिलाएँ संतान को ईश्वरीय कृपा समझती है, इसीलिए वे परिवार नियोजन नहीं कराना चाहती है। अत: उन्हें समझाना होगा कि संतान ईश्वरीय कृपा से नहीं बल्कि पति—पत्नी के मर्जी से उत्पन्न होता है। 

 

 अगर दंपति चाहे तो कम संतान उत्पन्नकर अपना और अपने संतानों के भविष्य संवार सकते हैं या बच्चों की लंबी कतारें खड़ी कर जिंदगी को नरकमय बना सकते हैं। पुत्र और पुत्रियाँ में कोई अंतर नहीं है। प्राय: देखा गया है कि माँ—बाप की सेवा बुढ़ापा में पुत्र की अपेक्षा पुत्री ही उचित तरीके से करती है। अत: बुढ़ापे की सहारा पुत्री भी हो सकती है। पुत्र की चाह में अधिक पुत्रियाँ उत्पन्न् करना एक समाजिक पाप है। खुद के साथ अन्याय भी है। शिक्षित माँ—बहने चाहें तो अपने परिवार समाज के निरक्षरों को साक्षर बनाकर समाज, परिवार को अशिक्षारूपी अंधेरे से मुक्त करा सकती है। जो समय वे गप—शप या व्यर्थ के बातों में बरबाद करती हैं उसका सुदपयोग कर वे घर घर शिक्षा की दीप जला सकती है। एक दीप से हजारों लाखों और अनगिनत दीप जलाये जा सकते हैं बस शुरूआत करने भर की देर है। परिवार की आर्थिक हालत सुधारने में भी महिलाएँ अपना योगदान दे सकती है। वे चाहे तो सिलाई, कढ़ाई सीखकर घर बैठे अच्छी कमा सकती है। इसके अलावा अनेक गृह उद्योग जैसे, पापड़ बनाना, अगरबत्ती बनाना इत्यादि स्थापित कर करने समय का सदुपयोग एवं परिवार की माली हालत सुधार सकती है।मुझे विश्वास है कि परिवार समाज के विकास में माँ—बहने जरूर सहायता करेंगी। 

संजय कुमार निषाद

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