मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Thursday, November 22, 2007

राष्ट्रीय घ्वज का अपमान

पिछले दिनों मीडिया में यह खबर दिखाई गई कि हाल में जयपुर में संपन्न हुए भारत-पाकिस्तान के बीच एक दिनी क्रिकेट मैच के दौरान कुछ अति-विशिष्ट विदेशी अतिथियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया गया। समाचार में जो दिखाया गया उससे स्पष्ट होता है कि तिरंगा को बिछाकर उसपर शराब की प्याली रखना उन अतिथियों के लिए मनोरंजन का विषय हो सकता है। क्रिकेट बोर्ड के पदाधिकारियों. के लिए उन विदेशी अतिथियों को बुलाना गौरव की बात हो सकती है, लेकिन क्या भारत के आम नागरिक के लिए यह मनोरंजन अथवा सम्मान की बात है? मेरे ख्याल से इसमें उन अतिथियों का कोई दोष नहीं है बल्कि उन्हें बुलाने वाले दोषी है। आयोजक को चाहिए था कि अगर उनका अति-विशिष्ट अतिथि कोई विदेशी है तो उनके लिए उनके जरुरतों की चीज का इंतजाम करें। भारत के राष्ट्रीय ध्वज का वहाँ क्या काम था ?


इस प्रकरण से एक चिंतन का विषय और हो सकता है कि क्या खेल के मैदान में सिर्फ मनोरंजन के लिए राष्ट्रीय ध्वज का उपयोग पर रोक नहीं लगाना चाहिए? हमलोग बचपन से सुनते आ रहे हैं ‘ खेल को खेल भावना से खेलना चाहिए ‘ तो क्या खेल के दौरान राष्ट्रीय ध्वज चाहे वह किसी भी देश का हो, फहराना खेल भावना है ?


भारत में क्रिकेट को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का विषय बनाया जा रहा है। यह कहाँ तक उचित है? आज हमारे राष्ट्रीय खेल और खिलाड़ियों की दुर्दशा पर सोचने के लिए किसी पास समय नहीं हैं। राष्ट्रीय खेल के प्रतिष्ठित खिलाड़ी एक-एक रुपया के लिए मोहताज है, लेकिन क्रिकेट के खिलाड़ी दिनों दिन मालामाल हो रहे हैं। सिर्फ राष्ट्रीय खेल ही क्यों क्रिकेट के अलावा यहाँ के अन्य सभी खेलों के साथ तो सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। परिणामत: जब अंतराष्ट्रीय स्तर पर खेलों की प्रतियोगिता होती है तो पदक तालिका में हमारे देश का नाम नीचे लिखा होता है, तो भी हमें शर्म नहीं आती है। हमें तो सिर्फ क्रिकेट वर्ल्ड कप चाहिए।


वैश्वीकरण के इस दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत जैसे देश में अपने उत्पाद को खपाने के लिए क्रिकेट एक अच्छा हथियार मिल गया है। इसीलिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सबसे अमीर बोर्ड है। हमारा मतलब यह इससे नहीं है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अमीर क्यों है? हमारा मतलब इससे है कि धन के मद में हमारे राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत या हमारी सभ्यता- संस्कृति का अपमान नहीं हो। अच्छा तो यह होगा कि खेल के मैदान में राष्ट्रीय ध्वज का इस तरह का खुला प्रदर्शन न हो, यानि दर्शक राष्ट्रीय ध्वज मैदान में न लेकर जायें।

Wednesday, November 21, 2007

ख़बरिया चैनल बनाम बाजारिया चैनल

आजकल 24 घंटे दिखने वाली खबरिया चैनलों की बाढ़ आ गई है। इनको कोई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक मुद्दा नहीं चाहिए, बल्कि कोई मसालेदार, चटखदार, सनसनीखेज खबर चाहिए। खबर दिखाने से किसका ज्यादा नुकसान होगा, यह सोचना इसका काम नहीं है। खबर दिखाने से इनको कीतना फायदा होगा, सिर्फ इसका ख्याल करते हैं। ऐसी ख़बर जिससे समाज का कुछ भी हित होनेवाला नहीं, उसे ये सामाजिक मुद्दा बनाते हैं, सीधा प्रसारण कर समाज एवं संबंधित सदस्यों जीना दूभर कर देते हैं। अगर कोई महिला एक पति के खो जाने या बिछड़ जाने के बाद दूसरी शादी कर लेती है और कुछ सालों के बाद अगर उसका पहला पति आ जाता है। तो इसमें कोई भी समाज को क्या आपत्ती हो सकती है? ये तीनों की नीजि मामला है, इसे सीधा प्रसारण कर समाज के बीच मनोरंजन का साधन बना देना कितना उचित है ?


पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित चैनल द्वारा (गोधरा) गुजरात में हुए दंगे से संबंधित स्टिंग ऑपरेशन के कारनामें दिखा रहे थे। बोल तो ऐसे रहे थे कि बहुत बड़ा काम लिये हों, जिससे देश का नाम रोशन होगा। गोधरा में हुए दंगे में काफी लोग मारे गये, करोड़ों का नुकसान हुआ, सैकड़ों घर तबाह हुए, इसमे कोई शक नहीं है। इसकी जितनी भी निंदा की जाय कम है। इस तरह के क्रूरतापूर्वक किया गया काम सभ्य समाज के नाम पर कलंक है। लेकिन क्या गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में जो किया गया था, वो क्या मानवता के खिलाफ नहीं था? क्या चैनलवालों की यह जिम्मेवारी नहीं थी कि उस हादसे का भी जिक्र करते? किसी एक राजनैतिक पार्टी या राजनेता के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन करना कहाँ की अक्लमंदी है? क्या चैनलवालों का यह सोचना काम नहीं है कि इस स्टिंग ऑपरेशन से समाज में वैमनस्यता का भाव उत्पन्न होगा। फिर से कोई बड़ी कांड हो सकता है। दोनों समाज के लोग जो सब कुछ भुला कर जीना शुरु कर दिये हैं, वे फिर से अपने आप को कुंठित महशुश करेगें। राजनैतिक लाभ-हानि तो दूसरी बात है, उसकी चिंता तो राजनेता करेगें, लेकिन समाज को जो हानि होगी, उसकी चिंता कौन करेगे?


24 घंटे वाली समाचार चैनलों की ढ़ेर में कोई भी एक ऐसा चैनल नहीं है, जो आधे घंटे में देश-प्रदेश की सारी खबरें दिखा दे। इसके लिए ऐश्वर्या राय की करवाचौथ बड़ी खबर होती है, लेकिन अगर एक बच्चा दूध के खातिर दम तोड़ता है तो वह बड़ी खबर नहीं होता। लगभग सभी चैनल अपना ध्यान नगरों और महानगरों पर केन्द्रित किये हुए हैं। गाँवों और कस्बों की बात एवं समाचार दिखानेवाला कोई नहीं हैं।

वास्तव में समाचार चैनलवालों का मकसद सिर्फ और सिर्फ रुपया कमाना होता है। देश का यह चौथा स्तंभ आज ऐसे विज्ञापन से भरे-पड़े हैं, जिसे परिवार के साथ देखना मुश्किल होता जा रहा है। अंतःवस्त्रों के विज्ञापनों के नाम पर जो नंगापन दिखाया जा रहा है, उसे चौथा स्तम्भ का काम तो छोड़िये, एक जिम्मेदार नागरिक का भी काम नहीं माना जा सकता है ? अब समाज और सरकार दोनों की जिम्मेवारी है कि ऐसे समाचार चैनलों के खिलाफ आवाज उठायें।