सदियों से शोषित-दलित और उपेक्षित,
उपजाति, कुरी गोत्र में खंडित।
अशिक्षा, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता से ग्रसित।
बिन मांझी की नौका सी दिग्भ्रमित।
कोटि-कोटि मानव का अज्ञान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
घूँट आँसुओं के पीते हैं जो.
शोलों और अंगारों पर जीते हैं जो।
अनवरत, अथक परिश्रम कर दर्द छिपाते सीनें में,
चीड़ सुदामा सा सीते हैं जो।
उनके माथे का निशान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
कोटि-कोटि निर्बल मानव.
ताक रहे निर्मल अनंत नभ।
क्षण भर में कर दे जो विप्लव,
आयेगा कब वह मनुज प्रगल्भ।
हम उनका अरमान बदल दें।
आयें युग का मान बदल दें।
मूक-पाषाण सा अनंत पथ को निहारता,
शायद मिट चुकी उनकी भाग्य की रेखा।
भूल चुके हैं इनको इनके भाग्य विधाता।
या है पूर्व जन्म का लेखा-जोखा।
हम विधि का वह विधान दें।
आयें युग का मान बदल दें।
संजय कुमार निषाद
5 comments:
संजय आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है!
आपकी कविता का भाव बहुत पसन्द आया। साधुवाद!
संजय आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है!
आपकी कविता का भाव बहुत पसन्द आया। साधुवाद!
आपका हार्दिक स्वागत है।
आपका मेल समझ के परे था, सिवाय लिंक कें।
आपका हार्दिक स्वागत है।
आपका मेल समझ के परे था, सिवाय लिंक कें।
स्वागत है दोस्त। आइये और ठाठ से बिराजिये यहां। खूब विचरण करें और मिल बांट कर लें मौज...
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