मंजिल तो पाना है।

शिखर पर जाना है।

चाहे कुछ भी हो जाये,

खुद से किये वादा निभाना है।

संजय कुमार निषाद


Wednesday, August 31, 2016

नेक अप, नेक डाउन:विकास का एकमात्र फार्मूला।


                    विकसित देशों में खासकर अमेरिका में विकास का नेक अप, नेक डाउन का फार्मूला बेहद प्रचलित एवं लोकप्रिय है। वहाँ के प्रत्येक नागरिक इस पर अमल भी करते हैं। हमारे भारत में भी जाने—अनजाने में यह फार्मूला वि​कसित एवं संभ्रात परिवारों में खूब प्रयोग में लाया जाता है, लेकिन अविकसित देश हो या परिवार आज भी इससे अंजान है या इसपर अमल नहीं करते। अगर निषाद समाज इस फार्मूले पर अमल करे तो निश्चय ही समाज का उत्तरोत्तर विकास होता रहेगा अन्यथा हालात से कोई अनभिज्ञ तो हैं नहीं।


                     नेक अप, नेक डाउन (Neck up, neck down)यानि गर्दन से उपर और गर्दन से नीचे, कितना खर्च करते हैं, इसपर आपका एवं आपके परिवार का पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनेतिक सारा विकास निर्भर करता है। इसे विस्तार से समझे हम जो भोजन करते हैं, पेट में जाता है, जो गर्दन के नीचे है। ज्यादातर कपड़े गर्दन के नीचे ही पहना जाता है। गर्दन के उपरवाले हिस्से में खर्च एक ही जगह किया जा सकता है, वह है दिमाग। जिस प्रकार पेट को भोजन चाहिए, उसी प्रकार दिमाग को भी भोजन चाहिए। हमलोग कोशिश करते हैं कि पेट को प्रतिदिन अच्छा से अच्छा भोजन दिया जाये, ताकि शरीर तंदुरूस्त रहे। दिमाग को भी भोजन प्रतिदिन चाहिए, इसपर तो कभी सोचते ही नहीं, लेकिन दिमाग को भी प्रतिदिन भोजन चाहिए और अच्छा भोजन चाहिए। दिमाग का भोजन ज्ञान है। दिमाग भी भूखा नहीं रह सकता है। अगर हम भोजन नहीं भी दे तो भी वह कहीं न कहीं से भोजन का इंतजाम कर लेगा, लेकिन वह भोजन अच्छा होगा इसकी गारंटी नहीं है। अच्छी चीजें कभी भी मुफ्त में नहीं मिला करती। अगर हम दिमाग को भोजन के रूप में सिर्फ नकारात्मक बातें, अभद्र व्यवहार,उत्तेजक बातें, फिल्में या कथा साहित्य देंगे तो दिमाग तंदुरूस्त कहाँ से रहेगा। पेट के लिए छप्पन भोग और दिमाग के लिए गाली—गलौज, तो विकास कहाँ हो सकेगा।


                     जो दिमाग के अच्छे भोजन पर जितना खर्च करेगा, उसका विकास उतनी तेजी से होगा। कुछ लोग भीख मांगकर भी बच्चों को पढ़ाते हैं तो कुछ बच्चों से भीख मंगवाकर खाते हैं । विकास किसका होगा आपलोग स्वयं निर्णय कर सकते हैं। अविकसित परिवार ज्ञान अर्थात शिक्षा पर या तो खर्च करते ही नहीं या कम से कम खर्च करते हैं। यह अलग बात है हमारे यहाँ प्राथमिक शिक्षा मुफ्त है, लेकिन उसके बाद तो हिसाब करना पड़ता है। लोग प्राय: यह सोचते हैं कि जब खूब पैसा होगा तो शिक्षा पर खर्च करूँगा, तबतक कुछ संपत्ति बना लें, भविष्य में काम आयेगा। शिक्षित एवं विकसित लोग ज्ञान को संपत्ति एवं संपत्ति बनाने का जरिया मानते हैं तो अशिक्षित, अल्पशिक्षित या शिक्षित सह अविकसित जमीन—जायदाद, रूपये—पैसा, सोना—चाँदी इत्यादि को संपत्ति मानते हैं। यहाँ ध्यान दें शिक्षित होना, ज्ञानवान होने की निशानी नहीं है। एक शिक्षित व्यक्ति भी अज्ञानी हो सकता है और एक अशिक्षित व्यक्ति भी ज्ञानी। ज्ञान शिक्षण और प्रशिक्षण दोनों तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए बहुत कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी करोड़पति हैं और करोड़ों ग्रेजुएट खाकपति हैं। शिक्षा पाना मंजिल है तो ज्ञान प्राप्त करना एक ऐसी प्रक्रिया है जो सतत चलती रहती है। मरते दम तक ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिए, और अमीर लोग यही करते भी हैं। मेरा मतलब है ज्ञान सिर्फ बच्चों और युवाओं को प्राप्त करना जरूरी नहीं हैं, बल्कि हरेक उम्र के ​व्यक्ति को अच्छे साहित्य या सज्जन के संपर्क में रहकर लगातार ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिए, अगर वे अपनी एवं परिवार की तरक्की चा​हते हैं तो मनोरंजन के अनेक सा​धन तो उपलब्ध हैं ही। जिस प्रकार हमलोग अच्छे भोजन पर प्रतिदिन खर्च करते हैं उसी प्रकार अपने आय का कुछ अंश प्रत्येक महीना कम से कम एक अच्छे साहित्य को खरीदने एवं उसे प्रतिदिन 10—20 मिनट पढ़ने में करे तो निश्चय ही हम तरक्की करेंगे। पूजा—पाठ के बदले अगर रोज ज्ञान—पाठ किया जाये तो परिवार खुशहाल हो सकता है।

                    

                         हमारे समाज के युवावर्ग स्कूल,कॉलेज के बाद किसी प्रतियोगी परीक्षा के तैयारी किये बिना सरकारी नौकरी की आस लगाये बैठे रहते हैं और किसी असफल या अ​ल्पशिक्षित लोगों के चक्कर में फँसकर ​देश,सत्ता या अन्य समाज पर दोषारोपण करने में अपने बेशकीमती उर्जा का दुरूपयोग करते हैं। परिणाम सबके सामने हैं। याद रखें सफल लोगों से मिलने के लिए और असफल लोगों से न मिलने के लिए कुछ खर्च भी हो जाये तो चिंता करने की कोई बात नहीं है। आप मंजिल तय करें। संकल्प करें। फिर प्रयास करें। संघर्ष करें। मंजिल पाने तक डटे रहे। सबसे बड़ी बात अपने दिमाग को रोज पर्याप्त मात्रा में भोजन दें। नकारात्मकता से बिल्कुल दूर रहें। अपना, अपने परिवार का, अपने समाज का भविष्य उज्ज्वल करे। मैं आपलोगों से यही अपेक्षा करूँगा।

Tuesday, August 30, 2016

व्यक्तिगत विकास के द्वारा ही समाज का विकास संभव है।


आजकल सोशल मिडिया, सामाजिक संगठनों और राजनैतिक पार्टियों इत्यादि जैसे मंचों से अपने समाज के बुद्धिजीवियों, समाजसेवकों एवं राजनेताओं के द्वारा अपने समाज के विकास हेतु समाज में एकता लाने का प्रयास लगातार किये जा रहे हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी में है, इस तरह के प्रयास चार दशक पहले से ही हो रहा है, और हमारा निषाद समाज आज भी सबसे नीचले पायदान पर है। समय के साथ जो परिवर्तन यानि विकास होता है बिल्कुल उससे भी अछूता। इसका कारण हमारे समाजसेवी बुद्धिजीवियों द्वारा जो दिया जा रहा है और जिस निदान पर अमल करने को कहा जा रहा है, मुझे लगता है शायद वह उचित नहीं है। अन्यथा समाज की जो आज स्थिति है, कम से कम वैसी नहीं होनी चाहिए जैसी है। जो प्रयास अब भी किया जा रहा है अगर इससे समाज का विकास हो सकता तो अब तक में हो जाता। 

हिन्दी के एक कहावत से हमलोग भलीभाँति परिचित हैं— पहले योग्य बनो फिर इच्छा। हमारे समाज के बंधु इच्छा पहले करते हैं योग्य तो बनना चाहते ही नहीं। आज चारों ओर आरक्षण का शोर है। लोग अपने तरह से इसे परिभाषित भी कर रहे हैं। हमें ये मिलना चाहिए, तो हमें इतना मिलना चाहिए, हमारे पूर्वज राजा थे, हमें राजपाट मिलना चाहिए, वे विदेशी हैं, अमुक हमारा हक मार रहा है, इत्यादि। कथन सभी सही हैं। मैं आरक्षण के खिलाफ नहीं हूँ। वर्तमान परिस्थिति में आरक्षण सामाजिक रूप से पिछड़ों के लिए ​जीवनदायिनी का काम कर रही है। लेकिन क्या सिर्फ आरक्षण काफी है, इससे हमारा कल्याण हो जायेगा? ​छात्र जीवन में मेरे कुछ स्वजातीय मित्र हुआ करते थे। उनमें से कुछ आर्थिक रूप से सबल भी थे, लेकिन विश्वविद्यालय के बाद सबने मेरा साथ छोड़ दिया। प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए मेहनत करना किसी के बस में नहीं था। अब भी हमारे समाज के बच्चों /युवाओं का यही हाल है। पृथ्वी पर जीवन के किसी भी क्षेत्र में बिना प्रतियोगिता किये कोई बेहतर जीवन नहीं जी सकता, यह कटु सत्य है। जितने पदों के लिए प्रतियोगिता होती है, उतने भी ऐसे प्रतियोगी हमारे निषाद कश्यप समाज से नहीं होते हैं जो ढंग से तैयारी करके परीक्षा दे रहा हो । उसे शत—प्रतिशत आरक्षण चाहिए, और यही सपना देखते आ रहे हैं, दिखाते आ रहा हैं और अब भी दिखाया जा रहा है। मजदूर का बेटा, किसान का बेटा, रिक्शाचालक का बेटा, ओटोचालक का बेटा, घर—घर में खाने बनानेवाली नौकरानी का बेटा आई0ए0एस0 बन चुका है। हमारे निषाद समाज के राजपुत्र अब भी इंतजार कर रहा है शत—प्रतिशत आरक्षण का।
       
समाज के कुछ राजनेता सह समाजसेवी अपने आप को मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रपति तक के उम्मीदवार घोषित कर चुके हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन पद के अनुरूप गुण और आचरण भी होना आवश्यक है। जब सोशल मीडिया जहाँ सिर्फ शिक्षित लोगों का आशियाना होता है, ढंग से बात नहीं करते तो समाज का सेवा या उच्च पद का अधिकारी कैसे हो सकते हैं। किसी के लिए भी अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाले मानसिक रूप से कमजोर ही होता है और इससे साहस का काम नहीं हो सकता। नकारात्मक दिशा में किया गया कोई भी प्रयोग अनुपयोगी ही होता है। नकारात्मक बातें कर भीड़ तो इकट्ठा किया जा सकता है, लेकिन वह भीड़ भेड़ समान होगा। नकारात्मक बातें कर हम मन की भड़ास तो निकाल सकते हैं, लेकिन उससे बाते करने वाले ओैर सुनने वाले दोनों के सिर्फ उर्जा का ह्रास होगा। परिणाम भी नकारात्मक ही होगा। हमें इतिहास इसलिए नहीं पढ़ाया जाता है कि हम कुछ लोगों से बैर करें, अनावश्यकरूप से लड़े। बल्कि इतिहास पढ़ाने का मतलब होता है कि हम अपनी एवं दूसरों की पुरानी गलतियों से सबक लें और भविष्य में सतर्क रहें। अगर हम मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक कमजोरियों के बजह से पुराने समय में अपना कुछ गवाँ दिये तो कम से कम आज इस तरह की गलतियों को नहीं दोहरायें। 

हम आज लोगों को पढा रहे हैं। हमारे पूर्वज राजा थे हम अपना राज—पाट लेकर रहेगे। हम अपनी ग​लतियों को उजागार नहीं कर रहें हैं बल्कि वही गलतियों को दोहरा रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सत्ता की मांग करना जायज नहीं है, लेकिन सिर्फ राजनैतिक सत्ता से हम शासन नहीं कर पायेंगे। शासन के तीन अंग हैं— अपने देश में —व्यवस्थापिकाख, कार्यपालिका और न्यायपालिका। जबतक कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में हमारी हिस्सेदारी नहीं होगी हम शासन नहीं कर पायेंगे। इन दोनें में हिस्सेदारी के लिए हमें पढ़ना पड़ेगा और प्रतियोगिता भी करना पड़ेगा। इसलिए जो मुख्यमंत्री बनने के प्रयत्नशील हैं हमें उनका सहयोग तो करना ही चाहिए, लेकिन साथ में हमें शासन की बाकी दोनों अंगों के लिए भी तैयारी करना चाहिए। हमारे समाज के कुछ सफल राजनेता चाहे वे किसी भी पार्टी में जो समाज के लिए अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाते हैं यह सच हैं और भविष्य में दे भी नहीं पायेंगे यह भी सत्य है, क्योंकि जब तक कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में हमारे समाज के प्रतिनिधि नहीं होगें तब तक समाज का शोषण होता रहेगा। कार्यपालिका और न्यायपालिकाओं में हमारा प्रतिनिधित्व व्यक्तिगत प्रयास से ही संभव हो सकता है सामूहिक प्रयास से नहीं। 
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अगर आप परिवार का विकास करना चाहते हैं तो सबसे पहले स्वयं का विकास किजिये और अगर समाज का विकास करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने परिवार का विकास किजिये। सोशल मिडिया का सदुपयोग भी हमलोग कर सकते हैं। यहाँ अनेक प्रकार से सेवा एवं व्यवसाय से जुड़े अपने सामाजिक बंधु हैं और युवाओं की संख्या भी कम नहीं हैं। अगर हम एक—दुसरे के लिए अभद्र भाषा या नींचा दिखाने का प्रयास नहीं कर इसका प्रयोग सिर्फ जान—पहचान एवं ज्ञान का आदन—प्रदान करने के लिए करने तो समाज का कायाकल्प हो सकता है। 

हो सकता है मेरे इस विचार से कुछ लोग सहमत नहीं हो या उन्हें आघात लगा हो, लेकिन मेरी मंशा किसी को ठेस पहुँचाना नहीं है। समाज का विकास अगर पुराने विचारों एवं प्रयोगों से नहीं हो रहा है, तो कुछ नया करने में क्या बुराई है। अगर हम साकारात्मक दिशा में सोचेंगे तो परिणाम भी सकारात्म होगा। इसके विपरीत भी यही होता है। हमें सफलता के लिए सफल लोगों का अनुसरण करना चाहिए। सफल लोगों से बैर कर हम अपनी उर्जा का क्षय करते हैं परिणामस्वरूप हम असफल हो जाते हैं।